मेरी मनीषा
आकुल, व्याकुल मेरी मनीषा
ऊर्ध्व -द्वार पर टकटकी लगाए|
शुभ्रचन्द्र के निर्मल प्रकाश से
आलोकित नभ में स्नान की चाह जगाए|
चेतना की वीणा के तार प्यासे मिलन को
मानो धेवत -स्वर में त्रिष्टुप मिल जाए |
अन्तः की प्यास बुझाने को मेघ
अमृत भरे स्वर्ण- कलश नभ से लुढकाए|
प्राची से उमढते वायु के वेगों को तक
प्रतीक्षारत क्लांत मुख क्षीण-क्षीण मुस्काए|
नटी -प्रकृति की प्रशस्त राहों से सीख
मेरी मनीषा आनंद से सराबोर हो जाए||
वीणाविज ‘उदित्’