मूक क्रंदन ( कहानी)
मूक क्रंदन (कहानी)
“कुछ चाय वाय पी हो कि नहीं?-सुबह उठते ही रियाज़ करने बैठ जाती हो बिटिया! ”
दद्दा के पूछने पर मेरे हाथ की उंगलियां सितार के तारों पर वहीं रुक गईं और उनकी लाड़ भरी परवाह मुझे अभीभूत कर गई। मैंने उनकी भावनाओं को समझते हुए कहा ,
” हम चाय पीकर बैठे हैं दद्दा, काहे चिंता किए जाते हो?” और सितार के तारों पर मेरे बाएं हाथ की उंगलियां पुनः दबने व दाहिने हाथ से मिज़राब तार के स्वरों पर नृत्य करने लग गया था। मेरी दिनचर्या का आग़ाज़ यहीं से होता है कई वर्षों से । मैट्रिक करके आगे प्राइवेट बी. ए. करने की सोच ली थी मैंने। वैसे उन दिनों कॉलेज जाने का रिवाज ही नहीं था क्योंकि हमारी मुड़वारा तहसील में तब लड़कियों का अलग से कॉलेज ही नहीं था ! लड़कियां घर के काम-काज़ सीखती थीं, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई और रसोई के ढेरों काम। इन्हीं में निपुणता पाकर फिर ब्याह दी जाती थीं।
बड़के भैया ने शादी के अलावा और कोई काम तो कभी नहीं किया लेकिन मेरी एफ. ए. ( बारहवीं) के लिए किताबें मंगवा दी थीं। जिन्हें सोने से पूर्व ऊपर कमरे में मैं कभी-कभार पढ़ लिया करती थी। बाकि, रियाज़- रियाज़ और बस रियाज़ में ही मेरा मन लगता था । सितार के तार मेरे अंतर्मन में बसे रहते थे जैसे किसी निर्मल झरने का ऊंचाइयों से गिरता जल, कल- कल की मधुरिम झंकार के स्वर उच्चारता है। मेरे भीतर भी यह कोमल एहसास बसा रहता रहा ताउम्र !
हवेली नुमा पुराना घर था हमारा, जिसके पूजा घर से सटा यह हाल था, जिसमें बहुत से साज रखे रहते थे। मेरा सितार ,अरुणा की तबला जोड़ी , करुणा का सरोद और जो सभी का था पर किसी खास का नहीं था- हारमोनियम ! मेरा सितार बजता था तो अरुणा आकर तबले पर थाप देकर संगत करने लग जाती थी । करुणा भी कहां रुक पाती थी वह भी आकर सरोद के भारी भरकम तार छेड़ देती थी। ऐसे पलों में हमारा घर मां सरस्वती का मंदिर लगता था। हवेली में मौजूद सारे के सारे बाशिंदे हाल की ओर खिंचे चले आते और भीतर एकत्र होकर संगीत के स्वरों की झंकार में डूब जाते थे । ऐसी पावन वेला में बाहर तख्त पर बैठे दद्दा और अम्मा का चेहरा गर्व से तन जाता था। मानो साक्षात शारदा मैया भीतर पधारी हों।
हमारी हवेली सरोवर के सिर पर विराजमान थी तो सारा शहर हम पर रश्क करता था। दद्दा बिना ताज़ के राजा यानि सदैव शहर के बेताज बादशाह रहे। जब तक वे जिंदा रहे तब तक हर साल शहर की सबसे शानदार दशहरे की रामलीला वही करवाते थे। स्टेशन से लेकर मेन रोड के आखिरी सिरे तक लकड़ी के खंभों पर लाउडस्पीकर लगवा देते थे और दशहरे के दिन जुलूस में सबसे पहले वाले ट्रक में राम, लक्ष्मण , सीता के चरणों में गद्दी पर चकाचक सफेद रेशम के कुर्ते में बैठे रहते थे। जाती हुई गर्मी और आती हुई सर्दी की मस्त दोपहर से जुलूस का शुभारंभ और विजयादशमी का पर्व यहीं से मनाना प्रारंभ होता था। पीछे कतारबद्ध नवदुर्गा की सजी हुई गाड़ियां निकलती रहती थीं देर रात तक और शहर के बाहर मैदान में नदी किनारे रावण का पुतला जलाया जाता था मेघनाथ और कुंभकरण के पुतलों के साथ। मानो जमाने भर का पाप नष्ट हो जाता था उनके जलते ही। मुड़वारा तहसील और आसपास के सभी गांवों से जनता एकत्र हो जाती थी दशहरे के इस शानदार पर्व को मनाने की खातिर!
हमारे घर की शान और बरकत इतनी थी कि ना मालूम भंडार गृह में कितना खाना बनता था कि जो भी चबूतरे पर आ जाता तो जीम (खा)कर ही जाता। मजाल है जो रात के बारह बजे तक भी चूल्हों में आग ठंडी पड़े। गोधूलि की बेला में तो तलैया किनारे हवेली के भीतर और बाहर का चबूतरा भरा ही रहता था जरूरतमंदों से। गरीब , अमीर, जो भी कुछ आस लेकर आता पूरा करवा कर ही लौटता। बड़े से तख्त पर एक तरफ अम्मा( काली आदिवासी) अपने पान के साजो समान की चांदी की संदूकची सजाए, हाथ में सरोता से सुपारी काटतीं, मुंह में गिल्लौरी डाल के मुंह चलाए रहतीं, तो दूसरी तरफ दद्दा बैठे फरियादियों की फरियाद सुन कुछ उपाय बताते या जैसी दरकार हो यानि रुपए पैसे की मदद भी करते रहते थे । भीतर से तार सप्तक के स्वरों की झंकार आकर सारा वातावरण मधुर संगीतमय बनाए रहती थी। सितार और सरोद संग तबले की थाप मानो मस्ती बिखेर देती थी। शहर के आम लोग बाहर सड़क से ही सिर नवाकर हाथ जोड़कर वहां से गुजर जाते थे मानो किसी देवालय के सामने से गुजर रहे हों । या भीतर देवताओं का दरबार सजा हो और आदर से उसके सामने से गुजरना जरूरी हो।
वैसे इसमें सुबह उस समय विराम लग जाता था जब रसोई घर से —जो एक विस्तृत आंगन जैसा था सब महाराजिन लोग खाना बनाने में जुट जाती थीं। मैंने ही तो भंडार गृह से उन्हें सामान देना होता था। सब्जियों के टोकरे सिर पर धरे अपने खेतों से बाई लोग भी तभी आ पहुंचती थीं। फिर तो पूछो ना सिलबट्टा लेकर कोई बेल की चटनी, तो कोई पुदीने की चटनी पीसने लग जातीं, तो कोई खड़ा मसाला पीसने लग जाती थीं। चाय की पतीली तो सारा दिन एक चूल्हे पर एक छत्र राज करती थी। क्योंकि ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं था कि हवेली की दहलीज पर कोई आया हो और बिना चाय पीए चला गया हो। आसपास के इलाकों से और दूरदराज के गांवों से भी लोग आते थे। खूब चहल-पहल लगी रहती थी। हम तीनों बहनों से छोटा राजन हाई स्कूल में था तो उसके दोस्त भी वहां मंडराते रहते थे। उन्हीं में मनोज जो एक बार अपने बाबा के साथ दद्दा को मिलने आया तो यहीं का होकर रह गया था। उसे संगीत पसंद था, वह भी कॉलेज से सीधे यही आ जाता था। वह भोली सी सूरत बनाए रहता और बड़के भैया से लेकर राजन तक सभी उसके दोस्त थे। रसोई घर में हक़ से मांगकर-खाता-पीता था । देखने में अंग्रेज लगता था। हवेली के चबूतरे पर आने जाने वालों के मेले में किसे फुर्सत थी कि उससे कुछ पूछता। उसी घर का लगता था क्योंकि दद्दा भी लंबे-ऊंचे, गोरे- चिट्टे, रुआबदार थे।
उनकी शादी का भी एक किस्सा था—पहली बीवी राजघराने से थीं लेकिन पहले बच्चे की जचकी में ही मर गईं। उन दिनों अंग्रेजों के विरुद्ध गांधी बाबा के जुलूस में सबसे आगे झंडा पकड़े एक आदिवासी लड़की थी। तो बस उसीके साथ राजनीति के जोश में पुनर्विवाह कर लिया था। यही हमारी अम्मा थी। दोनों का रंग गोरा और काला ऐसा मिला कि हम लोग सब बच्चे गेहुए रंग के पैदा हुए। सफेद धोती में हमारी काली अम्मा सिर पर उल्टा पल्लू डाले मुंह लाल कीए रहतीं। कुछ तो था उनमें जो दद्दा उनको बहुत मानते थे।
“मैहर” हमारे इलाके में संगीत का घर माना जाता है। दद्दा वहां से किसी ना किसी संगीतज्ञ को आमंत्रित किए रहते थे ,जो बाबा अलाउद्दीन खान साहब को सलाम बजाने आते थे। बाबा के बेटे अली अकबर खान या दामाद पंडित रविशंकर आते तो वे भी इस बैठक में पधार कर मुझ पर थोड़ा बहुत ज्ञान का छिड़काव कर जाते थे । सितार पर मेरी पकड़ बढ़ती जा रही थी। बेशक मेरे बाएं हाथ की बीच की उंगलियों की पोरों से खून रिसता था , जख्मों में टीस सी उठती थी —पर गरम- गरम मोम डालकर मैं उनको बेजान करने की कसर नहीं छोड़ती थी क्योंकि तभी रियाज़ संभव था । सुबह राग भैरवी और मटियार छेड़ कर सरोवर किनारे स्वर्गिक अलौकिक अनुभव होता था और शाम ढले राग पीलू मन पर छा जाता था। झाला बजते ही उसकी अनुगूंज हर किसी को सितार की ओर खींचती थी। स्वयं मैं तो मदमस्त हो ही जाती थी! यूं लगता रहता बिना संगीत के जग सूना होता है। इसमें गतिमान केवल संगीत ही है।
प्रसिद्ध सितार वादक निखिल बैनर्जी गोरे- चिट्टे बाबू मोशाय जब आए तो सितार के तारों पर उनकी लयकारी के साथ-साथ उनका चेहरा और उस पर उनकी आंखें भी संगीतमय हो जाती थीं। मैं बावरी सी, उनकी भाव-भंगिमाओं की दीवानी हो गई थी। मुझे शिक्षा प्रदान करने के लिए सामने बैठा कर जब वह मुझे सिखाते तो लगता मैं पूरी की पूरी उनके भीतर उतर गई हूं। तारों की एक-एक झंकार मेरी उंगलियों की पोरों में समा जाती थी । शायद उन्हें भी मेरे चेहरे को पढ़कर कुछ तो भान हो गया था । दद्दा से हर माह सिखाने आने का वायदा किया था उन्होंने । जिसने मेरे भीतर खलबली मचा दी थी। शायद उम्र का तकाज़ा था कि मेरी संवेदनाएं प्यार की बारिश में भीग- भीग जा रही थीं। यूं तो हम सभी बहने जवान थीं, लेकिन सादगी भरा जीवन जीने के कारण मेरा नाम मीराबाई अपने नाम के अनुरूप था। मीरा कृष्ण की दीवानी थी तो मैं भी निखिल दा को अपना आराध्य बना बैठी थी । इनके आने से रसोई घर की आवभगत में भी कहीं कोई कसर न रह जाए इस ख्याल से मैं महाराजिनों के सिर पर जाकर दबाव डालती थी और तरह-तरह के शाकाहारी व्यंजन बनवाती थी। वैसे तो बंगाली बाबू मछली की झोल पसंद करते होंगे पर हम लोग शाकाहारी भोजन ही झोलदार बना देते थे कि उनकी पसंद का मसाला तो हो जाए कम से कम।
बार-बार आने से उनके साथ बेतकल्लुफी बढ़ गई थी।
बातों बातों में मुस्कुराहट और आंखों का लजाना भी आ गया था मुझे। पूरा महीना उन्हीं चार दिनों की प्रतीक्षा में बीतता था। यहां तक कि कभी-कभी अरुणा कह देती,
” दिदिया , तुम निखिल दा के विषय में बात करते हुए अतिरिक्त रूप से संवेदनशील हो जाती हो, काहे?”
और मेरी अनुभूतियां गांभीर्य का आवरण—‘ लज्जा युक्त होकर ओढ़ लेती थीं!
उनके प्रस्थान करते ही सारी रात आंखों में कटती थी। नींद आंखों के द्वार पर थपकी देने भी नहीं आती थी। मुझे लगता अंधेरे सायों में अचानक पीछे से कोई परछाई आकर मुझे अपनी बाहों के घेरे में ले लेती है कि राग भैरवी के तार छिड़ जाते हैं,
” इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है!”
मेरे जहन में उस पर यह गीत थिरकने लग जाता और सब कुछ थम जाता ।
याद आ रहा है वह मंजर जब निखिल दा सितार के तारों पर उंगलियां फिराते हुए एक बार कालिदास की प्रसिद्ध रचना “मेघदूत ” पर आधारित गीत के पहले भाग को
” ओ आषाण के पहले बादल”,
जिसे संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी ने लोक शैली के ही बीच एक राग माला की तरह कंपोज किया था । उसमें मेघ मल्हार , मियां की मल्हार और भूपाली के बदलते सुरों के साथ मृदंग पर लाजवाब प्रयोग किया था —-इसे बजाया था। जो कि उनका पसंदीदा राग था , तो वहां सभी उनके दीवाने हो गए थे और बाहर भीतर तक भीड़ एकत्र हो गई थी । तब मैं मीराबाई —कृष्ण दीवानी मीरा बन गई थी। हां, मैं मूर्तवत् हो गई थी —प्रेम अनुराग से भरकर।
पुनः एक बार –“शाम भाई घनश्याम ना आए”
राग जय-जयवंती पर आधारित लता मंगेशकर की गाई हुई सुंदर रचना उनके सितार के तारों पर जब नाच उठी थी तो पक्के रागों में सरल संगीत ने अजीब समा बांध दिया था। शास्त्रीय रागों का फिल्मी संगीत में सर्वाधिक विविधता से उपयोग होने के कारण संगीत कर्णप्रिय हो जाता है और हृदय में मधुर रस आवेग उमड़ आता है । यह आकर्षित बहुत करता है लेकिन उनका कहना था,
” यह लाइट म्यूजिक है, यूं ही सुना दिया। मीरा, आप पक्के राग ही सीखो और उनका ही अभ्यास करो।”
“जी गुरुजी,आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।”
जब तक उनके पुनरागमन की तारीख का पता चलता मेरा एक-एक दिन मुश्किल से कटता था। इंतजार बना ही रहता था मुझे! लगता मैं भीतर ही भीतर गल रही हूं । लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि बाहर शायद सभी को पता लग गया था । तभी करुणा ने भी कह दिया ,
” दिदिया थोड़ा तैयार हो जाया करो ना ! क्या निखिल दा के आने पर ही सजना संवरना होता है।”
मैं अवाक रह गई थी। दिमाग में कौंध गया था,” इत्र और प्यार की खुशबू माहौल में एकदम फैल जाती है, छुपाने से भी नहीं छुपती ।”
अब मैं भीतर ही भीतर लजाने लग गई थी । उम्र जो ऐसी थी। जवानी की दहलीज पर पांव अंदर बाहर जो होने लग जाते हैं। दद्दा और अम्मा ने बुला भेजा ,
“मोड़ी ,(बिटिया) रीवा के रईस हैं, तोहार लगन(शादी) लाने देख रहे हैं । हफ्ते भर में अइहैं देखबे को।”
“हम लगन नहीं करेंगे दद्दा ! हम अपना जीवन संगीत को दे दिए हैं। हमें नहीं अरुणा को दिखा दो।”
संगीत के प्रति हमारी लगन और निष्ठा को देखकर शायद दद्दा और अम्मा भी निरुत्तर हो गए थे। बार बार कहने से भी जब हमने हामी नहीं भरी तो दद्दा ने राजसी शान-बान से वहां अरुणा का लग्न आखिर करवा ही दिया । इससे हमारे सर पर से बोझ उतर गया था।
हम अपने आप से पूछ रहे थे कि क्या हम सच में पुरुष का साथ नहीं चाहते कि नाटक किए हैं ? सही अर्थों में तो हम निखिल दा पर मर मिटे थे फिर ऐसा क्यों कहे हम ? अपने आप से भी छल किया है हमने और मां-बाप से भी ! ऐसी सोच से हमारे भीतर तक क्षोभ भर गया था। भीतर ही भीतर मूक क्रंदन से अभिशप्त आत्मा बन गई थी मैं। जिससे चेहरे की मधुरता खत्म हो गई थी और चिंता व्याप्त हो गई थी। मुझे लग
गया था कि मैंने न्यायोचित नहीं किया है। और उन्हीं दिनों कुछ ऐसी अनहोनी घट गई जिसने जीवन के सारे तारों को झंकृत कर के रख दिया।
हुआ यूं कि अम्मा जो कि दिन भर तखत पर बैठी पान की सुपारी कतरती रहती थीं और पान खाती रहती थीं— वही सुपारी उनके गले में अटक गई थी। उसी पल उनकी पीठ में ढेरों मुक्के मारे गए लेकिन वह गले में अटक कर उनकी जान ही लेकर रही। अनहोनी घटने से पूर्व कभी संकेत कहां देती है? बगल में बैठे दद्दा ने भी सारे जतन करके देख लिए लेकिन मौत का ग्रास बनने से उन्हें कोई नहीं बचा पाया और पल भर में हवेली की खुशियां उजड़ गईं। सारे घर में मातम छा गया था!
“भला ऐसे भी कोई जाता है?” सब यही कह रहे थे। दद्दा तो पूरे ही टूट गए थे। सारा दिन दोनों अपने-अपने तख्त पर बैठकर आमने- सामने एक दूसरे की गतिविधियां देखते, बतियाते रहते थे। सो, दद्दा से अब अकेले बाहर नहीं बैठा जाता था। जैसे ना जीवन में आस, ना खाने पीने में रस, बस चारों ओर सूनापन पसरा था। अफसोस करने वालों के अलावा, घर में खास किसी का आना जाना भी नहीं हो रहा था । निखिल दा भी नहीं आए फिर कभी। क्योंकि अब दद्दा भूल गए थे शायद सब कुछ। अम्मा के जाने के दर्द से संगीत भी बेजान हो गया था। मेरी इच्छाएं अधूरी होकर हलक में अटक गई थीं। लगता है समझ ने जवाब दे दिया था, रातों की नींद उड़न छू हो गई थी। जरा सी झपकी आती तो किसी का रुदन सुनाई देता तो मैं चौंककर उठ के बैठ जाती थी । क्या मालूम था यह पूर्वाभास था भविष्य के अनिष्ट का ! हां कुछ ही महीने तो हुए थे अम्मा से बिछुड़े हुए कि करुणा चीख रही थी,” दद्दा, दद्दा ! दिदीया रे दिदीया देखो तो आकर ।”
दद्दा का पार्थिव शरीर पड़ा था। सब कुछ त्याग वे अम्मा के पास चल दिए थे हम सब को छोड़कर । हमारी नैया मझधार में थी और उसके खेवनहार अम्मा- दद्दा चले गए थे। वज्रपात हुआ था हम सब पर। दद्दा के रहते बड़के भैया तो दिन- रात भाभी के संग पड़े रहते थे। घर के कर्ता धर्ता दद्दा ही थे। यह बिछोह हृदय विदारक था। सब तरफ से सब भागे आ रहे थे और चीखो- पुकार मच गई थी। राजा के निधन पर प्रजा टूट पड़ी थी। राजन दद्दा पर गिरा पड़ा था। करुणा दद्दा का सिर गोद में रखे, छोड़ने को तैयार नहीं थी और हमें विफरते देखकर मनोज ने रोते हुए हमें अपनी बाहों में समेट लिया था। वह प्यार से बेतहाशा हमें पलोस रहा था। हम निढाल थे —अर्ध मूर्छित!
घर भर में छाया सुख अब करवट ले रहा था। दुख के साए घर की छत पर मंडरा गए थे। पुराने सुखद दिनों को पल भर को ही लौटा पाऊं, ऐसा कुछ भी तो नहीं था अब वहां। कभी इस घर में गूंजने वाला मधुर संगीत, शोरगुल, हंसी कहकहे, निर्बाध गति से चारों तरफ बहने वाला उल्लास , लोगों का आना जाना, चाय के खाली पिरच – प्यालों का शोर—सब के बदले एक लम्बा मौन पसरा था।
हां, मुझे महसूस हो रहा था कि मनोज मेरे आस-पास ही मंडराता रहता है। कुछ दिनों से वह कॉलेज भी नहीं जा रहा था। यहां तक कि अपने घर न जा कर राजन को ढांढस बंधाने के लिए रात को उसके साथ सो रहता था। मुझे यूं महसूस होने लगा था जैसे मेरी ओर देखते हुए वह प्यार से मुझे अपनी आंखों में भर लेता है। दद्दा भी अपने काम के लिए उसे आवाज़ लगा देते थे क्योंकि वह घर के सदस्य जैसा हो गया था। अधिकार पूर्वक रसोई घर में भी जीम लेता था। सो, अब स्वाभाविक तौर पर उसकी ओर ध्यान चला जाता था क्योंकि अभी रियाज़ के लिए मैं सोच भी नहीं सकती थी। वक्त था मेरे पास इधर-उधर देखने और सोचने के लिए।
एक सांझ को हवेली से सरोवर की ओर जो सीढ़ियां नीचे उतर रही थीं, उन पर बैठी मैं सोच रही थी कि क्या दद्दा इतने बंधे थे अम्मा से कि बच्चों के लिए कुछ और देर ठहर नहीं पाए और चले गए उनके पीछे-पीछे ! अब हम सब का क्या होगा? राजन तो अभी मेट्रिक भर किए हैं, और बड़के भैया तो सदा से निकम्मे रहे हैं। दद्दा बुलाते रहते थे ,
“बड़के हमारे पास आकर बैठो तनिक, हम तोहार को बहुत कुछ समझाए खातिर बुला रहे हैं। बिटुआ, कब तक लुगाई (पत्नी) के पल्लू में छिपे बैठे रहोगे?”
पर भैया अब पछता रहे हैं कि वे कभी आकर नहीं बैठे थे। क्या मालूम दद्दा किस को क्या- क्या दिए रहे और कौन-कौन मुंह छुपा गया है। इसी झुंझलाहट में मैं सरोवर पार से गाढ़े हो आए धुंधलके को देख, उठकर भीतर संगीत कक्ष में आ गई थी। विचारों से मेरा दिमाग घूम रहा था और मन थकान से चूर हो रहा था। भीतर आ अपने उपेक्षित हो गए ,सितार को छूने भर से आंसुओं का रुका आवेग सारे बांध तोड़ कर बह निकला और मैं अकेली अपने भीतर और बाहर छाए अंधियारे से ग्रसित फफक- फफक कर जोर -जोर से रोने लगी थी कि तभी किसी की बलिष्ठ भुजाओं ने मुझे कस के अपने साथ भींच लिया और मुझ पर प्यार की भीगी बरसात कर दी सहानुभूति में क्योंकि वह भी मेरे दुख में शरीक हो रहा था। यह भैया तो नहीं था क्योंकि आलिंगन का कसाव भिन्न था। कमरे की बत्ती जलाने की सोच ही नहीं थी। अंधेरे में दो नि:ष्प्राण से लिपटे थे हम। ऐसी स्थिति में उपजा प्रेम— ढांढस बंधाता हदें लांघ जाता होगा तभी तो उसका अतिक्रमण निर्बाध निर्विघ्न हो रहा था और वह इतना स्वभाविक था कि स्वीकारोक्ति की आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही थी।
जीवन के घटनाक्रम इस कदर गुजर रहे थे कि प्रेम की लालसा निखिल दा के जाने के कारण जो भीतर एक चिंगारी सी धधक रही थी कहीं वीराने में, वह धधकती ज्वाला बन गई थी एक लपट का सानिध्य पाकर! उस संगीत के मंदिर में इन दिनों कोई आता- जाता नहीं था। वीरानगी में उस रात प्रेम के दो फूल मर्यादा में खिल गए थे। जहां पवित्र पावन संगीत की स्वर लहरी समाई रहती थी उसी अभीष्ट स्थल पर मैं लंबा मौन धारण किए विचार रही थी की क्या — मनोज ?
नदी के आवेग से प्रभावित धारा प्रवाह ने रास्ता बदल लिया था। सदा चाहत भरी नजरों से मुझे तकने वाला, खाने के समय मीठी मुस्कुराहट से मेरे हाथ से कुछ भी ले लेना– क्या भीतर ही भीतर उसके मन में पनपता प्रेम था ? उम्र की सीमाओं की जिसे परवाह नहीं थी । मुझसे चार-पांच वर्ष छोटा ही होगा लेकिन मेरी दुरूह पीड़ा के क्षणों में उसने मुझे प्रेम -रस से सराबोर कर दिया था ! एक चौड़ी छाती रख दी थी उसने मेरे समक्ष सिर रख कर रोने के लिए । उससे कुछ सुन पाने की प्रत्याशा से भरे लंबे मौन के बाद मैंने जब पुकारा,
” मनोज!”
तो वह बुलंद हौसलों से भर उठा और बोला,
“हां बाई , हम हैं ना ! तुम्हें अपनी जान से अधिक प्रेम देंगे । तुम्हें संभालेंगे। सारे जग के समक्ष अपनी बनाएंगे।” उसकी दिलासाएं मेरे सिर के ऊपर से गुजर रही थीं। वक्त की नजाकत को समझते हुए उसकी चिंता और कमिटमेंट मेरा दुख- सुख बांटने की इच्छा —सब खोखले शब्द लग रहे थे मुझे । जो अनहोनी घटी थी उसने मेरे अंतर में भीषण तूफान ला दिया था, जिसके थपेड़े असह्य हो रहे थे मेरे लिए , जिससे मैं जड़वत् हो गई थी। मनोज ने मेरा मूक- क्रंदन सुन लिया था शायद! वह बोला ,
“ए बाई, कुछ नहीं होगा। हम हैं ना !” और मेरा हाथ थाम लिया था। मैं समझ पा रही थी बड़े घर का बेटा है पर समीकरण एक जैसे नहीं हैं। कितना कुछ है मध्य में—? गुंजलक पड़ गई थी यहां रिश्तों की! संदर्भ बदल गए थे पलों में ! हवेली में बहुत लोग आते हैं ! सभी अपनी मुंडी घुमाएंगे कहीं भी। हालांकि अब वह बातें नहीं रह गई थीं कि दद्दा की थाली के संग ढेर सारी थालियां सजती थीं और जो भी बैठक में बैठा है वह जीम रहा है । कसेड़ी (पीतल का मटका ) भर के बेल का ठंडा शरबत मैं दिन चढ़े बना देती थी कि धूप में जो भी आए परोस दिया करो । जिगर में ठंड रहेगी इतनी भीषण गर्मी में ! महाराजिन अम्मा का बेटा कंधे पर गमछा डाले यही काम सारा दिन करता रहता था गर्मियों में और सर्दियों में चाय की सर्विस!
अब वह मायावी संसार ना जाने कहां गुम हो गया था छूमंतर से! अब एक ही चूल्हा जलता है सीधा- साधा कच्चा खाना बनता है। बहुरिया भी चौके में आने लग गई थी उघड़ा मुंह लिए ,दद्दा जो नहीं रहे थे तो कैसा पर्दा ! भैया भी बाहर बैठक में दिखने लगे थे आजकल तखत पर बैठे हुए । वक्त अपनी चाल से आगे बढ़ रहा था। अम्मा और दद्दा को गए एक अरसा बीत गया था। करुणा भी अपने ससुराल चली गई थी । राजन ने प्रिंटिंग प्रेस का काम खोल लिया था। इस दीर्घ अंतराल के बीच घर का स्वरूप बदल चुका था। अनचीन्ही घटनाएं भी पार्श्व में घट रही थीं मेरे और मनोज के बीच। वह भी ईटों के भट्टे और पत्थर की खदानों पर जाने लग गया था अपने बाबूजी के साथ । रिश्ता करने के दबाव होने पर अपनी मां के आग्रह पर जब उसने बताया कि वह मीराबाई से विवाह करेगा तो वहां एक तूफान आ गया था। मनोज की अम्मा बोली थीं
,” कान्हा और राधा रानी का ब्याह थोड़ी ना हुआ था तब तुम कैसे ब्याह रचाओगे? अरे , हम अपनी बिरादरी में देख लिए हैं तुम्हारे लाने दुल्हनिया। चुपचाप घर पे बैठे रहो और जग की रीत निभाओ।”
वहां उस मारवाड़ी परिवार में इतना हड़कंप मचा कि मनोज के भाई- भाभी, दीदी-जीजा, बाबूजी- अम्मा सभी उसके विरोध में हो गए और बोले ,
“अग्रवाल हमारी बिरादरी नहीं है हम अपनी बिरादरी से बेदखल कर दिए जाएंगे।”
तब ऐसा ही चलन था समाज में । और मनोज की जिद पर उसके बाबूजी ने उसे अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया था। मनोज अड़े रहे और घर छोड़कर हमारे घर आ गए थे। भैया के दिमाग तो था ही नहीं सो वे सोचते विचारते क्या ? खास कुछ नहीं बोले, बस यही समझाते रहे अपना भला बुरा सोच लो तुम दोनों। मनोज में मर्दों सी परिपक्वता आ गई थी, टस से मस नहीं हो रहे थे। मैं तो अपने सितार के संग एकाकी जीवन जीने लग गई थी। मेरे जीवन की यही तो एक उपलब्धि थी। एक दिन मनोज मुझे समझाते हुए आवेग में बोले,
“तुम अपने को छलावा मत दो बाई । मीराबाई का चोला उतार फेंको। यह झूठे मस्तूल हैं, इनसे बेड़ा पार नहीं होगा। अपने खोल को उतार कर बाहर निकलो ‘शैल ‘ से। तुम्हें भी जीने का हक़ है। हम थामते हैं तुम्हारा हाथ!”
मनोज की दृष्टि में आवा्हन था। एक हामी भरे उत्तर की आकांक्षा मुझसे अपेक्षित थी। मेरी स्वीकारोक्ति !!! मैं सब जानते- समझते और चाहते हुए भी अंतर्मुखी बनकर असमंजस के भंवर जाल में डूबने उतराने लगती हूं! मेरा अतीत ध्वनित- प्रतिध्वनित होने लगता है! फल स्वरूप मेरे सितार पर झाला और शहनाइयों की मीठी धुन बजने लगती है। एक सुख भरे संसार और एक जीवन साथी के संग की कामना भी सपनों का संसार सजाने लगती है। जिसमें पुरुष की उपस्थिति का एहसास तो होगा ! ऐसे ढेरों उतार-चढ़ाव पिछले दिनों देखकर मैंने भैया के सामने हामी भर दी और कुछ विकल्प भी तो नहीं था मेरे पास। मैं घर में किसके सहारे रुकती? घर की दीवारें स्वयं बेसहारा हो मुझे ताक रही थीं।अम्मा और दद्दा बिन राजन भी अकेला पड़ गया था लेकिन वह सदा मेरे साथ था! मेरा हाथ दबा कर बैठा था बोला,” दिदिया, तुम जो भी करोगी हम तुम्हारे साथ सर्वदा हैं!” डूबते को तिनके का सहारा मिलने से मुझ में आत्मबल आ गया था। अधखुली आंखों से जो सपने देखे थे उनके पूरे होने की उम्मीद भी थी, फिर भी मैंने मनोज से आखिरी बार पूछा,
” सहानुभूति में भीगकर, तो तुम यह कदम नहीं उठा रहे ?क्योंकि जब इस दया भाव का नशा उतरेगा तो कहीं तुम्हें पछतावा ना हो। सोच लो आराम से। ”
मेरे मन के कोने का डर यह पूछने को मजबूर था। इस पर मनोज ने मेरे दोनों हाथों को पकड़ लिया और मेरी आंखों में आंखें डाल कर एक आश्वासन ,एक विश्वास और प्यार भरी दृष्टि से मुझे सराबोर करते हुए वही शब्द दोहराए, “हम कह रहे हैं ना कि हम हैं!!!”
मेरी अवचेतना में शहनाइयां गूंज उठीं !
वीणा विज’उदित’
अक्टूबर 2021