माँ

हे क्षीर-स्त्रोत्री !
तुम ही गुरु
सखा मेरी
अन्तर्प्रज्ञा हो
माँ !
जब नन्हे से
दो होंठ जुड़े
फूटा अस्फुट
प्रथम स्वर
मां !
बाल-कलोल
नटखट
बाल-हठ पर
लाड़ से लिपटाया
तुमने माँ !
चेहरा पढ
मन जाना
कामधेनु सी
इच्छाएं की पूर्ण
तुमने माँ !
तन के फटने
मन के टूटने पर
तुरपाई कर
वात्सल्य उड़ेला
तुमने माँ !
जटिल राहें
जीवन की
निर्बल तन-मन
सबल कवच बनी
तुम माँ !

वीणा विज ‘उदित’

One Response to “माँ”

  1. nkm Says:

    बहुत अचि थि. अनद आ गय.

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