बालू भित्तिका
बालू भित्तिका (कहानी)
रिश्तों का मूल्यांकन, रिश्तों को नाम एक सभ्य समाज की देन है । अलबत्ता कौन जानता है कि आदम और हौव्वा में क्या रिश्ता था? वह कौन थे ? वह थे एक पुरुष व एक औरत। इन्हें कोई भी नाम दे दे किंतु इनका संबंध—? महज एक नर और नारी का है । मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड के मूल्यांकन किसी रिश्ते को नहीं मानते । उसके लिए इंसानों में एक ही रिश्ता है औरत और मर्द का । जिनके भीतर कामरूप चुंबकीय शक्ति है- एक दूसरे को पाने की! या कह लें एक दूसरे में समाने की, जिसका चरम है संभोग कर आनंदित होने की । स्पष्ट है नारी को एक योनि मान लिया गया है और नर को आपाद – मस्तक एक लिंग ! तभी नर रूपी बाज नारी के इर्द-गिर्द मंडराता है। रिश्तों ध्यान की डोर भी समय कुसमय उसको बांधने में असफल रहती है। रस के संधान में वह आजन्म विचरता ही रहता है।
पुरातन साहित्य में भी कई संदर्भ ऐसे मिलते हैं जब दो तन सामीप्य पाकर कामोत्तेजक हो उठते थे। फिर चाहे वो तन दो नारियों के ही क्यों ना हों ? आज यदि “गे ” या “लैसबियन” शब्दों को तूल दिया जा रहा है , जिसे विश्व की अधिकतर संस्कृतियां स्वीकृति नहीं दे पा रही हैं तो यह कुछ नवीन विचारों का उद्भव नहीं हो रहा है। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है। आज हर रिश्ते को समाज में उजागर किया जा रहा है फिर यह तो मध्यमवर्गीय विचारधारा है कि समलैंगिक रिश्तों को स्वीकृति मिलनी दुष्कर प्रतीत हो रही है ।
हमारे भारत में भी उच्चतम न्यायालय ने आखिरकार इन रिश्तों की आपसी दृढ़ता को बांधने की व समाज में सिर उठाकर जीने की उपादेयता पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है । कुछ लोगों की मान्यता है कि समलैंगिक विवाह होने से वंश परंपरा का विनाश हो जाएगा । बच्चे तो होंगे नहीं । वे आपसी संबंधों में आनंद ही प्राप्त करते रहेंगे। तो जहां 134 करोड़ जनसंख्या है भारत की, तो सोचने की बात है उसे रोकने में यह लोग कारगर साबित होंगे । यह भारत के लिए तो प्रसन्नता का विषय है।
प्रेम तो जीवों का जन्म सिद्ध अधिकार है। जब कोई भी लिंग के दो प्रेमी प्रेमोन्माद में प्रेमोन्मत होते हैं तो अभिसार ही उनका चरमोत्कर्ष होता है। वो दो प्राणी समलैंगिक भी हो सकते हैं और भिन्न लिंग के भी ! इससे हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है । सम्यक भावना आ जाती है । घृणा नहीं होती और यह सब प्राकृतिक लगता है।
इन विचारधाराओं को दरकिनार करते हुए किसी भी भुक्तभोगी को इससे हुए कष्ट को भोगने के लिए बालू भित्तिका पर कैसे खड़ा किया जा सकता है, जहां यथार्थ की कोई इमारत खड़ी नहीं हो सकती!
पलकों पर ढेरों सपने सजाए रंगीली की डोली जब ससुराल पहुंची, तो हर एक पल के गुजरने के साथ-साथ उसकी पति की बाहों में सिमटने की प्यास बढ़ती जा रही थी कि तभी सासु मां ने आकर उसे बताया मधुकर को तेज बुखार है। वह आज सो जाए क्योंकि मधुकर मां के कमरे में है । मां उसकी देखभाल कर लेगी। लाज के मारे वह यह भी ना कह पाई कि उसे उन्हें देख तो लेने देते । बिना पति के सुहाग शैया उसे शूल सी चुभने लगी तो वह नीचे दरी पर तकिया लेकर तमाम रात सोने का उपक्रम करती रही। लेकिन अगले दिन और फिर उससे भी अगले दिन यही क्रम चलने लग गया था। मधुकर दिन भर घर पर रहता लेकिन कभी दो घड़ी को उससे नहीं मिलता और रात को कहीं छूमंतर हो जाता था। रंगीली हैरान-परेशान ! मां बाप के घर को छोड़कर जिस पति के भरोसे ससुराल आई थी , कहीं उसका होता दिखाई नहीं दे रहा था।
हर दिन नया बहाना होता । वह रंगीली को अर्धांगिनी का अधिकार नहीं दे रहा था । उसे अपनी संगिनी नहीं बना रहा था। ससुराल में यह बात किसी से सांझी करने की उसे हिम्मत नहीं हो पा रही थी। धीरे धीरे सब मेहमानों के जाने के पश्चात उसका अंतर्द्वंद्व उसे जीने नहीं दे रहा था।वह अकेले में मधुकर से बात करने के लिए छटपटा रही थी कि तभी उसके सर पर एक और गाज गिरी। सासु मां ने बताया कि मधुकर का ट्रांसफर दूर हो गया है। बेचारे को घर से दूर जाना पड़ेगा। मधुकर ने उससे उसका सामान पैक करने को कहा और किसी भी तरह की बात किए बिना वह चला गया–उसकी नजरों से दूर लेकिन उसके विचारों में हर पल बसा रहने के लिए।
रंगीली का भाई उसे मायके लिवाने के लिए आया तो सासु मां ने उसे भीतर कोठरी में ले जाकर डराया और धमकाया कि खबरदार जो उसने मैके जाकर किसी को कुछ बताया तो वो उस पर आवारा , बदचलन के इल्ज़ाम लगाकर समाज में मुंह दिखाने योग्य नहीं छोड़ेगी । याद रखे !! रंगीली के काटो तो खून नहीं । कोमल भावनाएं कुचली जा रही थीं और कुचले जाने पर वो चीखने की भी अधिकारी नहीं थी । नारी के साधारण मानवीय अधिकारों से भी वह वंचित थी। उसके पति जैसे पतित युवा आखिर क्या चाहते हैं नारी से ? —वृहद प्रश्न उसके समक्ष मुंह बाए खड़ा था । उसका वक्त ठहर गया था किसी ठौर पर नहीं बल्कि अधबीच रास्ते में।
मायके पहुंचने पर उसके निस्तेज मुखड़े को देखकर अम्मा ने कुछ भी पूछना चाहा तो वह मुखौटे ओढ़ती रही, क्योंकि उसकी सास का रौद्र रूप अपने स्मृति पटल पर ढोए रखा था उसने! उसके होंठ वहां सिले ही रहे। जब दर्द हद से अधिक बढ़ जाता और अपनों के बीच उसे रुलाई फूटने लगती तो वह बाथरूम में भाग जाती थी और फिर अपने शिथिल बदन को कतरा- कतरा संभालते हुए बाहरी हवा में सांस दिलाती थी। संताप की निरंतर जलती ज्वाला में वह जल रही थी। पति से ना मिलने के शोक के विकट वह अपने आप को बचा नहीं पा रही थी । जैसे-तैसे करके एक महीना बीता कि मधुकर उसे लेने आ पहुंचा।
उसे लगा, उसके व्रत और पूजा आखिरकार उसे फल देने लगे हैं। मधुकर ने उसके हाथ पर हाथ रखा तो मानो बंजर धरा में दबे पड़े बीज फूट पड़े थे नन्हे पौधे बनकर। दोनों रेल के डिब्बे में बैठे थे और रंगीली को लग रहा था यह रेलगाड़ी सदा यूं ही चलती रहे और मधुकर ऐसे ही अपने होने का स्पर्श उसे देता रहे उम्र भर ! उसे मस्ती छा रही थी मानो उसके दामन में फूलों ने बसेरा खोज लिया हो । लेकिन यह हसीन ख्वाब घर आते ही बिखर गए थे । दिन भर तो मधुकर दिखता रहता — सांझ का पटाक्षेप होते ही रात्रि की कालिमा उसे जाने कहां अंधेरों में लील लेती थी!वह वापिस चला गया था।
पुनः वही सब कुछ था। दिनभर रंगीली काम करती और रात के सन्नाटों में जिंदगी भर के बुरे सपनों को बुनती और फिर उधेड़ती रहती थी ! फिर थक हार कर दबी -दबी सिसकियां भरती रहती थी। जब कभी वह उसे फोन करती तो वह कहता तंग ना करो । जल्दी घर आऊंगा। मां को फोन में यही कहती कि वह मजे से है।
इसबार आने पर वह खाने की फर्माइश भी करता लेकिन रंगीली के हाथ पल्ले कुछ ना पड़ता और उनका कोई संबंध नहीं बन पा रहा था। एक सुबह वह बाथरूम में था तो रंगीली ने उसका फोन पलंग पर पड़ा देख कर उठा लिया। तभी -तभी हुई उसकी दोस्त के साथ की चैट को वह पढ़ने लगी तो —उसके दिमाग के परखच्चे उड़ने लगे। विस्मय से उसकी आंखें फैल गईं। उसने अपने दांतों से होठों को भींच लिया और हिम्मत जुटा कर स्क्रोल करके पूरा पढ़ डाला फिर जल्दी से अपने को फॉरवर्ड कर दिया।
मधुकर के गाने का स्वर बाथरूम से बाहर आ रहा था और रंगीली के समक्ष उसके मानसरोवर के हंस का तिलिस्म खुल रहा था — वह”समलैंगिक” था!
उसने जल्दी से सारा मैटर अपने भाई को फॉरवर्ड कर दिया और मायके वालों को जल्दी आने को कहा। उसका दिमाग चक्करघानी की तरह चल रहा था। महीने दर महीने उसके साथ क्या-क्या घटा, रात को कभी कमरे में नहीं आना, बहाने बनाकर फोन काटना। सब उसे समझ आ रहा था। उसके रखे व्रत और पूजा आज काम आए थे। जिनके फलस्वरूप वह इस आपत्तिजनक चैटिंग को पढ़ पाई थी।
उसने अपने आप में हिम्मत जुटा कर, मधुकर को फोन दिखा कर पूछा कि यह सब क्या है? इस पर वह ढीठ की तरह बोला,
” मेरे दोस्तों के साथ मेरे संबंध हैं! वही मेरी इच्छा, मेरी जरूरतों को पूरा करते हैं । तुम क्यों चिल्ला रही हो?”
इस पर वह विफर उठी और जाकर सास को बुला लाई।वो भी आते ही ढिठाई से बोली,
“इसका इलाज तो चल रहा है । हो जाएगा कुछ दिनों में ठीक । बवाल क्यों मचा रही हो इतना ? जाओ जाकर अपना काम करो।” और उसे बाहर की ओर धकेल दिया!
दोपहर तक रंगीली के भैया और पिताजी भी आ पहुंचे थे। उसे जबरदस्ती फर्टिलिटी सेंटर पर टेस्ट करवाने भी ले गए। जिससे मधुकर की मां और उसके बापू जी बहुत नाराज हो गए थे । तभी मालूम हुआ मधुकर ने अपना इलाज करवाने के लिए यत्न ही नहीं किया था। उसे ब्याह करने का कोई हक नहीं था । सारा कसूर उसकी अम्मा और बाबूजी का था। उन्होंने गुनाह किया था सब कुछ जानते हुए भी रंगीली से उसका ब्याह करके।
इतना बड़ा फ़रेब और छल ऐसी बालू भित्तिका था, जिस पर यथार्थ का महल खड़ा हो ही नहीं सकता था । आज वह महल भरभरा कर नीचे गिर पड़ा था।
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वीणा विज’उदित’