बसंत झुलना झुलाए
तंगदिल हुईं सर्द हवाएं
मौसम ने ली अँगड़ाई
इक इक क़तरा था सहमा
ज़र्रे-ज़र्रे ने तपिश पाई…
लिहाफ़ से ढ़ँकी सियाही
धवल हुई खोल किवाड़
नन्हे पैरों की पैंजनिया
छुन-छुन आँगन का सिंगार..
अब के बसंती पवन लाई
कसमसाते तन में उभार
आशिकों पे बरसाती
पलाश फूल के मेघ-मल्हार..
आए पीली सरसों से लहरा के
साजन के संदेस
बौरों से हुआ पेड़ों का श्रिंगार
कच्चे आमों के इंतज़ार.
कोयल कूक विरह भुलाए
कचनार के रंग बरसाए
तितलियाँ फूलों से रंग चुराएं
झूम- झूम बसंत झुलना झुलाए…|
वीणा विज ‘उदित्’
March 1st, 2008 at 8:38 am
bahut sundar
March 1st, 2008 at 11:29 pm
veena jee ,
saadar abhivaadan. aapke hindi ke shabdkosh kee prachurta par man mugdh ho gayaa. aage bhee aapko padhnaa jaaree rakhenge.dhanyavaad.
June 19th, 2008 at 6:08 am
a really sweet poem……