पुनर्जीवा
- कहानी…….”पुनर्जीवा”
शैलजा गहरी नींद की ग़ार से बाहर निकल, हड़बड़ाकर उठ बैठी थी |फ़ागुन के सुनहरे मौसम में भी वो पसीने से तरबतर थी |जिन हैवानों को उसने अपनी लाडली सिया को उससे छीनकर ले जाते देखा था ; जिनके पीछे बेतहाशा भागती ,रोती हुई वो मदद के लिए चीख़े जा रही थी, उन्हें अंधेरे ने लील लिया था |उसी ग़हन अंधकार की ख़ामोशी से भयभीत हो , वो उठ बैठी थी | ओह!तो क्या यह मात्र एक ख़्वाब था | लेकिन क्या यह एक बार की बात थी ?—-नहीं!यह सब यूं ही नहीं था | हर दिन अख़बारों के पन्ने व टी वी की न्यूज़ में नाबालिग़ बच्चियों व युवा कन्याओं और स्त्रियों के शारीरिक उत्पीड़न, यौन शोषण, बलात्कार , दुष्कर्म व कुकर्म की ख़बरें पढ व सुन कर वो मानसिक रूप से उन्हीं में उलझी रहती थी |उठते-बैठते अपनी सोच में कल्पना को यथार्थ का जामा पहनाकर वो काँप-काँप जाती थी |दिखने में शैलजा ठहरी हुई साधारण स्त्री लगती थी | लेकिन भीतर से वो कोमल व भयभीत संवेदनाओं से ग्रसित हो चुकी थी | दहशत भरी परछाइयाँ उसके ज़हन के इर्द-गिर्द मँडराती रहती थीं |उसकी बेटी ‘सिया’ उसी की तरह दिखने में साधारण थी —-लेकिन थी तो वो ‘लड़की ‘|जो वर्तमान के दूषित समाज में पल बढ रही थी |कसैला यथार्थ समक्ष था | कभी भी कोई अनहोनी उसके साथ भी घट सकती थी | आखीर वो भी तो इसी समाज का हिस्सा है | ऐसी आशंकाएं शैलजा को चैन से जीने नहीं दे रही थीं |
खुशियों की बारिश जो सिया के जन्म पर बरसी थी , उसकी स्मृतियाँ उसके समक्ष खड़ी मुस्कुरा रही थीं | उसी बारिश में शैलजा आज भी भीगी रहना चाह रही थी |किन्तु— डर के साये बीच में आ उसे भयभीत कर् रहे थे | गौरव जब भी उसे पुकारता वो चौंक जाती थी | खालीपन ढोता उसका चेहरा और उस पर छाया ज़र्द रंग का साया –उसे परेशान कर देता था| आँफिस से लौटने पर उसे एकांत में खोए बैठे देखकर गौरव का सिर भी भारी हो जाता था| वह भी नोट कर रहा था कि सिया को लेकर शैलजा काफी असुरक्षित महसूसती है | आदित्य को तो स्कूल बस में स्कूल भेजती है | वहीं पाँच वर्ष की सिया को वो स्वयं कार में स्कूल छोड़ने व लेने जाती है | शैलजा ने ढेरों खिलौने लाकर एक कमरे को टाँय-रूम बना डाला था| सिया को किसी के घर न भेजकर , वो आसपड़ॉस के बच्चों को अपने घर खेलने को बुला लेती थी | पार्क वगैरह जाना हो तो वो हमेशा ही दोनो बच्चों के साथ रहती थी | वैसे अपने आप को भूल , वो बच्चों की परछाईं बन कर रह गई थी | नौकर रखना तो उसे कतई गँवारा नहीं था | हाँ कामवाली बाई लगा रखी थीं | इस पर भी दिन भर घर के भीतर व बाहर के काम निपटाने में वो थककर चूर हो जाती कि रात को उसे चैन की नींद मयस्सर हो सके | किन्तु —दहशत की परछाईंय़ाँ ख़्वाब बन कर पीछे पड़ जातीं |
एक दिन रिचा मिली थी उसे– वो बताने लगी कि घटा दस वर्ष की है , फिर भी रिचा ही उसे ट्य़ूशन क्लास के लिए छोड़ने व लेने जाती है |मैडम के मोड़ पर एक ड़ी. जे. की लौरी खड़ी रहती है| उसमें उनके काम के चार पाँच लड़के निठल्ले से घटा को आते देख कर अजीब से इशारे करते हैं| कभी कोई फ़ब्ती भी कस देते हैं | उनकी इन हरकतों से डरती घटा ट्यूशन ही नहीं जाना चाहती |पर करें तो क्या करें? आजकल इतना गंदा वक्त है कि किसी को ग़लत बात के लिए डाँट भी नहीं सकते |कौन लगे इन गुंडों के मुँह ? कहीं पीछे ही न पड़ जाएं | बाबा डर लगता है | देखा नहीं सोनी टी.वी पर ‘दस्तक ‘ प्रोग्राम् में ? क्या हाल करते हैं, बदले के लिए | आज घर बैठे ही देख लो दुनिया कैसे रसातल को जा रही है | स्वंय कुछ कर सको तो कर लो, किसी से कुछ न कहो |
सब बातें सुनकर शैलजा को लगा कि रिचा भी उसी की तरह असुरक्षित महसूसती है |वह सोच में पड़ गई कि यह कैसी गर्म -हवाएँ बह रही हैं कि जिनकी तपिश से अम्न ओ चैन झुलस रहे हैं |आज की बदलती सामाजिक , राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों मे नारी की अस्मिता ख़तरे में पड़ गई है | वह पुरुष को अभिन्न रिश्तों के अलावा भी एक भयानक शक्ल में देखती है–जो हैवान और राक्षस की शक्ल है| दिल्ली की चलती बस में “दामिनी रेप-कांण्ड़”–पुरुष की रुग्ण मानसिकता का ,हैवानियत का एक विशेष उदाहरण है |जिसने हर स्त्री पर दहशत की छाप छोड़ दी है |वहीं पाँच वर्ष की अबोध बालिका और प्रतिदिन न जाने कितनी बालिकाओं से दुष्कर्म हर माँ को असुरक्षा का जामा पहना गया है | ऍसे भयावह सत्य सबको निरुत्तर कर रहे हैं | इसी तरह के विचार शैलेजा की छाती के बंद किवाड़ों को सीधे खटखटाकर दस्तक दिए रहते | और शैलजा की हर धड़कन उनकी गूँज महसूस करती रहती |
अपनी काम वाली बाई से अचानक एक दिन शैलजा ने पूछा कि वो अपने बच्चे किसके भरोसे घर में छोड़कर काम पर आती है ? इस पर उसने बताया कि घर में बूढी सास है |जो वैसे तो किसी काम की नहीं |पर घर का दरवाजा खुला रहता है | मर्द तो सुबह का गया , रात को पीकर धुत्त होकर लौटता है |आकर मार-पिटाई करता है, एक धेला नहीं देता घर में कमाई का | हाँ देता है , तो सिर्फ़ कोख़ में एक नया बीज |( अपना पेट दिखाते हुए ) वह फिर पेट से थी |कहीं बाई के चौथी भी बेटी हुई तो ? इस ख़्याल से ही वो काँप उठी | उसे हर शख़्स परेशान और चिन्ताओं से घिरा दुखी ही लगता |वह सोचती, कन्या-भ्रूण हत्या यदि पाप है , तो कन्या की सुरक्षा की गैरेंटी भी तो नहीं है | इन्हीं सोचों से शैलजा की मानसिकता रुग्णतर होती जा रही थी | वह सिया के आसपास विशिष्ट रूप से कोई न कोई सुरक्षा कवच बनाए रखती | गौरव के किसी भी दोस्त के पास या आसपड़ौस के किसी भी अंकल के पास उसे जाने नहीं देती थी | उसे समझाती कि किसी भी अंकल से टाँफी , चाँकलेट या कोई भी गिफ्ट नहीं लेना |
जब चारों ओर से ऍसे किस्सों की अतिरेकता हो जाती, तो बेटी को सीने से लगा शैलजा रोने लग जाती | साथवाली गली के गुप्ता साहब की बेटी ‘मोना’दसवीं में पढती थी | उनको कभी हवा ही नहीं लगी कि मोना रिसेस में अपने साथ पढते एक लड़के के घर जाती रहती थी | उस लड़के ने अपने घर में छिपे कैमरे से अपने साथ मोना की ब्लू-फिल्म बनाकर नैट पर डाल दी | शरम के मारे मोना ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर् ली | मिसेस
गुप्ता रो-रोकर विलाप कर रही थीं | ” इसे मैंने कोख़ में ही क्यों न मार डाला? आज भी तो मर ही गई है | साथ हम सब को भी मार गई है | ”
उस रात शैलजा सो नहीं पाई | अजन्मी चीखों का शोर सब ओर सुनाई दे रहा है लेकिन जन्मी बेटियों की चीखें तो लगता है ‘सुनामी’ ही लाएंगी एक दिन | अखबार में लिखा था, “अभिभावकों को सताने लगी बेटियों की चिंता “(वह तो कब से इस चिंता में घुली जा रही है ) आगे लिखा था , “दरिंदों के ख़ौफ़नाक पंजे आए दिन उन्हें अपना शिकार बना रहे हैं | “यह सब पढकर कौन से माता-पिता काँपेंगे नहीं ? कहाँ है सुरक्षा–?
नारी शक्ति है | नारी सबला है | वह ४९% है| पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है | –भाषण देने के लिए यह सब अच्छी
दलीलें हैं | वास्तविकता क्या है–? यह हम सब जानते हैं |पुरुष की हवस की भूख के समक्ष वह अपने नारी शरीर के कारण मात खा जाती है |लगता है नारी एक फिसलन है; जिस पर पुरुष फिसल ही जाता है | फिर वो किसी भी उम्र का क्यों न हो | किसी भी रिश्ते से जुडा क्यों न हो | शैलजा के अपने अतीत की खिड़की भी अचानक खुल गई | जिसकी ओट से उसके अपने सगे मामा का विकृत चेहरा झाँक उठा | जो चढती उम्र की सगी भाँजी को
देख वश में न रह सके थे | फिर परायों का क्या विश्वास—?
उसे चहुँ ओर सि. फ्रायड की थ्योरी की सच्चाई नज़र आती थी | जिसके अनुसार, “दुनिया में दो ही लोग होते हैं| औरत और मर्द | जिन्हें कोई रिश्ता नहीं बाँधता | बदन की आँच में सब पिघलकर एक हो जाते हैं | फिर वो बदन किसी का भी हो |”
गौरव की हर सम्भव कोशिश होती कि शैलजा को समझाए कि यह डर बेबुनियाद है | वह ढेरों उदाहरण देता , पर कुछ नहीं होता | आखीरकार, वह उसे सऐकैट्रिक के ले गया | वहाँ सऐकोथैरेपी भी चलती रही | लेकिन ,जिस थैरेपी ने उसके भीतर बदलाव लाया –वो मिली उसे एक मजदूरन से | हुआ यूँ कि गली के नुक्कड़ पर एक नए बनते घर में बिन छत और दीवारों के प्रागंण में पलते एक मजदूर के ढेरों बच्चे सारा दिन गली में निकल शोर मचाए रहते थे | जिनसे सब डिस्टर्ब होते, पर कोई कुछ न कहता | एक शाम शैलजा ने उस मजदूरन को बुलाया और बोली, “अपने बच्चे और
बच्चियों को तुमने सारा दिन सड़क पर खुले छोड़ रखा है | जमाना बहुत खराब है | कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो –? इस पर उसने एक टूक जवाब दिया ,
“बाई ! ई सब तौ निपट लेंगीं , जौन कोई इनसे कुछ करे का होई तौ | तैं काहे डरत हो फालतू मां | तोहार बिटिया को भी दिलेर बनाई दो न ! हमहू तो इनका सब सिखाई दिए हैं| हमार मोड़ी का पास कोई न फटकेगा –इत्ता भर जान लो |”
उसका जवाब सुन,शैलजा का मुँह खुला का खुला रह गया | एक अनपढ़ गँवार के समक्ष उसकी समझ छोटी पड़ गई थी | उसकी सोच अपमानित हो गई थी | इस तिरस्कार से उसका मनोबल जाग उठा | भीतर आत्मविश्वास की तरंगें बहने लगीं | उसे लगा उसके भीतर व्याप्त ‘भय’ का निवारण इसी आत्मविश्वास की बागडोर थामने से ही संभव हो पाएगा | वह अपने गेट की सीड़ियों पर बैटी थी | उसी पल उसने ‘सिया’ का हाथ छोड़ दिया | वो मानो बंधनमुक्त हो भागकर गली में खेलते अन्य बच्चों में मिल खेलने लग गई | वहीं बैठी, ‘सिया’ की खनकती हँसी की झंकार शायद पहली बार सुन रही थी वो | सर झटककर व कंधे उचकाकर वह स्वयं भी अपने मन के बदलाव पर छोटी सी हँसी हँस दी |
अगली सुबह–
” बुझदिल कहीं की “! शैलजा बोली | गौरव ने अख़बार से सिर ऊपर उठाकर देखा कि अख़बार पढते हुए वो उससे मुख़ातिब हो गुस्से से बोल रही थी |
‘करनाल में नाबालिग़ से दुष्कर्म करने पर माँ-बेटी ने ज़हर खा लिया |’शैलजा बेहद जोश से बोली,”अपराधी को दण्ड देने का विधान बदलना होगा सरकार को | दोषी पाए जाने पर उनके “लिंग” को काटकर उन्हें हिजड़ा बनादें | जिससे वे सारी उम्र अपराध-बोध में जीएं , व दूसरे भी इससे सबक लें |”पहले की तरह रोने-काँपने के बदले आज शैलजा शेरनी सी दहाड़ रही थी | डर व भयावहता ने साहस व आत्मशक्ति का जामा पहन लिया था |पुनर्जीवा हो उठी थी वो | गौरव, जो हर सम्भव प्रयत्न कर हार चुका था | आज उस मृत प्राय शैलजा को पुनर्जीवित देख ईश्वर को मन ही मन कोटिश धन्यवाद दे, मुस्कुरा उठा |
वीणा विज ऊदित
४६९-आर माडल टाऊन
जालंधर -१४४००३
फोन…९६८२६३९६३१