पर्वतों के पार
पर्वतों के पार वादी में पहुँची शिथिल काया,
भीगी हरियाली के दामन को हौले से थामा|
हरी दूब तप्त-स्पर्श पा मुरझा न जाए,
अंग-अंग में शीतलता भर सीने में समेटा|
पर्वतों के आँचल में बिखरी बस्तियाँ,
ज्यूँ झाड़ी में खिले फूलों से लदी टहनियाँ|
नीचे तलहटी में फैली टेढी-मेढी गलियाँ,
खिलखिलाते बाल-सुलभ बचपन की अठखेलियाँ|
दूर बलखाती-लहराती आती दरिया की रवानी,
हिमगिरि के उतुंग शिखरों की परछाईयाँ समेट्ती|
धरती से गगन का मिलन बादलों का घर लगा,
पलक झपकने सा बदला हुआ संसार लगा|
इस दुनिया से उस दुनिया का अन्तर गहरा,
मन उचाट वहाँ,मन भावविभोर यहाँ हुआ|
सर उठाए चीढ़,देवदार होड़ लेते आसमानों से,
मदिर बयार के मधुर-स्पर्श से आलोड़ित होते|
यहीं रम जाँएं चट्टानों की शैय्या पे आँखों में आसमाँ समेटे,
सारी दुनिया भूल ,धरा पर स्व्रर्ग का अनुभव हृदय में लपेटे||
वीणाविज ‘उदित्’
(स के पहरेदार -से)