नोबेल प्रश्नचिन्ह के दायरे में!
अमरीकी राष्टृपति बराक ऑबामा को वर्ष २००९ का शान्ति का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा होने पर सारा विश्व असमंजस में है | शांति स्थापित करने का प्रयास करना एवं बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाना (वो भी भाषणों में)…इससे वे शांतिदूत की पदवी कैसे पा गए? हैरानी होती है नार्वे की नोबेल पुरस्कार समिति पर| जुम्मा-जुम्मा नौ महीनों के शासन-काल में ओबामा को अभी समय ही कहाँ मिला है कि वे कुछ करके दिखा पाते | समिति के वक्तव्य में ओबामा की सराहना की गई है कि उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर संबंध बनाने व सहयोग स्थापित करने के असाधारण प्रयत्न किए हैं जैसे परमाणु हथियारविहीन विश्व बनाने व पश्चिम एशिया में पुनः शांति स्थापित करने का यत्न किया है | प्रश्न यह है कि महात्मा गाँधी ने शांतिदूत बनकर व अहिंसा कॅ मार्ग पर चलकर एक देश को आज़ाद नहीं कराया था क्या? उन्हें १९३७ ,१९३८, १९३९ फिर १९४७ और मृत्योपरांत १९४८ में भी पाँच बार इस पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया और हर बार अंत में पुरस्कार किसी और को दे दिया गया | क़ितना हास्यास्पद है यह वृतांत! एक ने सारी उम्र शांति के लिए दे दी तो वो शांति का नोबेल पुरस्कार का हकदार नहीं चुना गया और दूसरा क्योंकि अमरीकी – अफ्रीकी प्रथम राष्ट्रपति है उसने भाषण दिए हैं कि वह बेहतर भविष्य बनाना चाहता है (भविष्य का क्या पता?), वह नोबेल पुरस्कार का हकदार हो गया |चलिए गाँधीजी के टाँपिक को न भी लें फिर भी यह बात हज़म नहीं हो रही है |
परमाणु निरस्त्रीकरण की पहल करते हुए ओबामा यदि अमरीकी विशाल परमाणु भंडार से दो-चार हजार परमाणु बमों को
नष्ट करने का साहसी कार्य करते तो सारा विश्व उनकी सराहना करता और उनका पुरस्कार भी आम जनता को न अख़रता | कोई भी पुरस्कार मिलने पर हर किसी को प्रसन्नता होती है तो फिर ओबामा क्यों नहीं प्रसन्न होंगे हम भारत की जनता उन्हें बधाई देते हैं| गिला तो हमें पुरस्कार समिति से है |