निमंत्रण न दो
अश्रु को दर्पण दिखाकर
टूटा हुआ मन है तो
आशाओं के सृजनद्वार पर
खुशियों का विसर्जन न दो-!
निर्बाध नेह झरकने दो
मृदुल प्रेम समर्पण दो
विपुल धूप में दीप्त होकर
पिघल जाने का अर्पण न दो-!
विरद कला का विस्तार देकर
घन में दीमिनी सी चमक हो
तो बहार के श्वेतपुष्प दिखाकर
कुकनूस के पंखों में अगन न दो-!
शब्दों को सिकुड़ने न देकर
संकोची शब्द-बिंदु बनने से बचा
उन्मन पलकों की कोरों में रह
साँझ में निशा-निमंत्रण न दो -!!
वीणा विज ‘उदित’