नाम भर की (लघु कथा)
नाम भर की (लघु कथा)
ढलती उम्र की जाती हुई बहार जो भी कष्ट देती है उसे सहना ही जीवन क्रम बन जाता है। कुछ दिनों से एहसास हो रहा था कि अब यह जिंदगी चंद दिनों की मेहमान ही रह गई है इस जग में । सो , बैठे-बैठे एक लिस्ट बना रही थी कि कौन-कौन से गहने , कपड़े , सामान किस बहू और बेटी को दिए जाएंगे मेरे पश्चात!
तभी पैरों की जलन बढ़ गई और टांग की व कमर की दर्द तड़पाए जा रही थी। पंद्रह वर्ष की “सलोनी” मेरी नौकरानी– बेचारी मुझे दोनों हाथों से दाब रही थी । जब भी पैरों में जलन होती तो टब में ठंडा पानी लाकर मेरे पैरों को पानी में सहलाती और तौलिए से पोंछती थी । शायद ईश्वर ने उसे मेरे शुभ कर्मों के अनुरूप मेरे पास भेज दिया था। मैंने अपनी सास की उनके बुढ़ापे में बहुत सेवा की थी । वह आशीषें देती थकती नहीं थीं। मुझे उसका फल मिल रहा था। मेरे अर्जित सुकर्म ही थे, जो अब मेरे बुढ़ापे में यह आ गई थी । यह बच्ची पूरे मन से मेरी सेवा कर रही थी ।
मैंने झट से अपनी लिस्ट में सलोनी का नाम जोड़ दिया और मन ही मन उसके लिए कितना कुछ करने की सोच गई । यही अंत में मेरी सेवा कर रही है। मेरी औलादें जो मुझे बहुत प्रिय हैं— वो तो नाम भर की हैं अब!
वीणा विज’उदित’
20/6/2021