नन्ही चीखें
चारों ओर से तेज रोशनी का प्रकाश और लाल रंग का आधिपत्य ।उफ़ यह तो लाल खून है ।
दीवारों पर लाल छींटे तो धरा पर लाल -लाल बिखरा कीच । वहीं इस कीच के मध्य नन्हे -नन्हे नंग -धड़ंग ढेरों भ्रूण हैं और नवजात शिशु भी खून से लिपटे हाथ-पाँव मार -मार कर चीत्कार कर रहे हैं “हमें मत मारो ! मत करो हम पर अत्याचार । हमें भी जीने दो ! हम भी जीना चाहते हैं । हमें भी दुनिया देखनी है तुम्हारी तरह ।
बचा लो हमको ! आखिर हमारा कसूर क्या है ? हमें बचा लो–जीने दो हमें भी अपनी तरह , औरों की तरह । इतना ज़ुल्म ना ढाओ –बचा लो–बचालो हमें ! सुनो, सुनो—अरे कोई तो सुनो ! मत मारो ! मत मारो—
-चीखों का शोर बढ़ता ही चला जा रहा.था कि उस शोर से घबराकर डॉ .ऊर्जा की नींद टूट गई । वह पसीने से लथपथ थी । ऐसा यथार्थ जिस पर उसका कभी ध्यान ही नहीं गया था , वह स्वप्न बन कर उसे भयभीत कर रहा था । उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी । साइड टेबल पर रखे पानी को पी कर उसने अपना सूखा गला तर किया । फिर.अपनी दोनों टांगो को छाती से लगाकर घुटनों में मुँह लटकाए,वह् सोच.में डूब गई ।
सोच , का आधार स्वप्न था जो कुछ इंगित कर रहा था.। शायद उसकी अंतरात्मा पुकार कर कुछ कह रही थी ।अपने नित्यप्रति के कार्यों को समक्ष रखकर वह ही इस स्वप्न.का विश्लेषण कर सकती थी । ऐसा सपना उसे पहली बार आया था ।असल में कल ही अपनी सगी भाभी का कन्याभ्रूण उसने गिराया था । भाभी ने पहले तो किसी को हवा तक नहीं लगने दी कि वो तीसरी बार उम्मीद से है, क्योंकि उसकी
पहले से ही दो बेटियां थीं । जब तक बात पता चली देर हो चुकी थी । डॉ ऊर्जा भी तीन बहनें थीं । हालांकि लिंग टैस्ट गैर कानूनी था , पर घर के भीतर किसी को कानो-कान खबर नहीं हुई । भाभी का केस डिलीवरी से अधिक कष्टदायी था । “हम दो हमारे दो” के युग में वैसे भी भैया को तीसरा बच्चा नहीं चाहिए था । हाँ लड़का होता तो फिर सब ठीक था । (यही है हमारी मानसिकता ) सो , डॉ ऊर्जा के ज़हन में यही ख्याल आया कि वह स्वंय भी तो इसी खानदान की तीसरी बेटी है । उसे बहुत लायक माना जाता है । सभी मान देते हैं उसे क्या मालूम यह कन्या भी बड़ी होकर उससे अधिक लायक निकलती और खानदान का नाम रोशन करती ?
डॉ ऊर्जा के दिल की गहराइयों को दूर तक कुछ चुभता जा रहा था । उसके बाबूजी ने सरकारी नौकरी में होते हुए भी अपने सब बच्चों को ऊँची शिक्षा के गहनों से लाद दिया था । जिसका उदाहरण वह स्वयं है । फिर यह ग़लती उससे कैसे हो गई ? क्या हमारा समाज इतना रसातल को चला गया है कि उसकी कुरीतियाँ कन्याओं को जन्म से पूर्व ही समाप्त करने को बाध्य करती रहेंगी ? भैया कॉलेज में पढ़ाते हैं । लेकिन एक ही रट है कि आज की मंहगाई में दो बच्चे ही पल जाएं तो गनीमत समझो ।
क्या डॉ ऊर्जा का कसूर इतना सा ही था ? कहाँ से आया उसके पास इतना धन ? इसी मानसिकता के चलते ही तो उसकी प्राइवेट प्रैक्टिस खूब चल रही थी । वो कोठीनुमा घर को एक शानदार अस्पताल का रूप दे पाई थी । और पुरानी कार का स्थान नई लैंसर ने ले लिया था । लिंग परीक्षण टैस्ट
गैर कानूनी है ,यह जानते हुए भी उसके अस्पताल में यह टेस्ट होते थे । और उसी के अनुसार गर्भपात एवम् अनचाहे गर्भपात किए जाते थे । जो परिवार कन्या नहीं चाहते वे किसी भी कीमत पर हाथ-पाँव जोड़कर कन्या-भ्रूण नष्ट करवाते हैं । यदि किसी की बेटी जवानी की दहलीज़ पर फिसलकर माँ बनने वाली होती है, फिर तो पूछो न उस गर्भपात के एवज में माँ-बाप मुँह माँगी फ़ीस देते हैं ।
असल में , जितना चाहे कोई कहे कि हम आज़ाद ख्यालों के हैं हमेे बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं है, फिर भी अंत:करण में बेटे की लालसा बनी ही रहती है । हमारा समाज ऐसा ही है । पहली बार बेटी हो तो उसका स्वागत होता है । यदि दूसरी बार भी बेटी आ जाए तो सब के चेहरे उतर जाते हैं ।
.. बेटी पराया धन मानी जाती है । विवाहोपरांत उसने पराए परिवार में जाना ही होता है । यह बात और है कि अब एकल परिवारों का चलन हो गया है । लेकिन असली मुद्दा यह है कि शादी में दहेज.की मांग आज भी है ।भले ही उसके रूप बदल गए हैं ,वो भी अमीरों के लिए ।
दूसरे, पारिवारिक विरासत में मिली सम्पति भी बेटा न होने पर चले जाने का भय । बुढ़ापे में बेटा सेवा करेगा ,यह आस । (आजकल ये सब कहाँ हो पाता है ? ) सो ऐसी कई उम्मीदें , बेटे के पक्ष में होती हैं ,जो बेटे की लालसा को बढावा देती हैं । नारी स्वयं एक बेटी होते हुए भी बेटा जनना चाहती है ।
.. डॉ ऊर्जा को प्रतिदिन इन्हीं तर्कसंगत बातों से दो-चार होना पड़ता था । यदि वह इन सबको समझाने का यत्न करती या मना करती तो वे किसी दूसरी.डॉ के पास जा कर भ्रूण से छुटकारा पा लेते थे । तब.वह अपने मन को समझाती कि नैतिकता का दम भरते हुए यदि वह अपने मरीज़ को बिना इलाज के वापिस करती है तो यह तो वही हुआ कि दूकान से बिना सौदे के ग्राहक को लौटाना । समझदार दुकानदार.तो किसी भी तरह ग्राहक को सन्तुष्ट करता है । फिर सोचा जाए तो उसकी भी यह दुकानदारी ही है । तिस पर लोग दुआओं की झड़ी भी लगा देते थे । इसी तर्क के आधार पर नैतिक -अनैतिक के भेद को भूलकर वह अपना कर्म किए जा रही थी ।
ढेरों भ्रूण प्रतिदिन उसके अस्पताल के कचरे की बाल्टियों में खून से लथपथ तैर रहे होते थे । जिन्हें नालियों में बहा दिया जाता था । उसे तो इतनी फुरसत भी नहीं होती थी कि कभी उन पर उचटती नज़र ही डाल ले । खिलने से पूर्व ही जो कलियाँ मसली व् कुचली जा चुकी होती थीं , उनकी पीड़ा को जान ले । आज से पहले उसे कभी यह ख्याल भी नहों आया था कि यदि ये कन्या-भ्रूण जीवन पा लेतीं , तो उसी की तरह एक डाक्टर , इंजीनियर या फिर पढ़ी लिखी सम्भ्रान्त महिला, या साइंटिस्ट बनकर देश और समाज का कल्याण भी कर सकती थीं ।
मातृत्व कभी निर्मम नहीं होता । फिर एक माँ होते हुए भी उसके ज़हन में यह ख्याल क्यों नही आया? लोग हाथ-पाँव जोड़ते थे और वह मान जाती थी कि चलो बेचारों का भला हो जाएगा । या कुछ.और….? क्या पैसों के लिए ? हाँ, उसे पैसों का लालच भी आता था । तभी तो उसने इतना ख़ौफ़नाक ख़्वाब देखा , जो नर्क की भीषण प्रतारणा से कम नहीं था ।
आज यदि वह गिनना भी चाहे तो गिन नहीं.सकती कि उसके हाथों कितने भ्रूण नष्ट हो चुके हैं ।उसकी अंतरात्मा ने स्वप्न के जरिए उसे झकझोरा था । उसे यह कर्म “गुनाह” लग रहे थे आज उन गुनाहों का फल भी उसके समक्ष था ..अपनी बेटी को वह माँ बनते नहीं देख पा रही थी । आठ साल हो गए थे उसकी निष्ठा की शादी को । अब उसे समझ आ रहा था कि जब आप नहीं चेतते तो कुदरत आपका फैंसला करती है। अपनी दोनों हथेलियों को अपनी आँखों के समक्ष ला वह उनमें कुछ खोजने लग गई ।अपने हाथों की लकीरों में उसे खून बहता नज़र आ रहा था । उसने हथेलियों को अपनी नाइटी से पोंछकर साफ़ करने का यत्न किया । और जब वो साफ़ नहीं कर सकी तो उसने जोर से मुट्ठियाँ भींच लीं । उसे अपने आप से ग्लानि हो रही थी ।वह उठी और बाथरूम में जाकर अपनी हथेलियों को साबुन मल -मल कर खूब जोर -जोर से धोती रही ।पर उसे लगा खून के दाग उसके हाथों की लकीरों में रच गए हैं ,हमेशा -हमेशा के लिए ।
डॉ ऊर्जा का अंतरतर पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा था । उसकी आखों से अविरल अश्रुधाराएं बहने लगीं । वह घर के पूजास्थान में जाकर नतमस्तक हो अपने प्रभु से क्षमा याचना करने लगी कि ,हे प्रभु ! क्षमा करो ।आगे से कभी भी ऐसे कार्य नहीं होंगे वह कसम खाती है । अनुतापवश उसके अधरों में कम्पन हो रहा था । सारी अंगयष्टि शिथिल हो गई थी । बस ! अब और हत्याएं नहीं ! कभी भी नहीं !!
जब अंत:करण जाग गया तो डॉ ऊर्जा का सोचने का ढंग ही बदल गया । जनगणना के आंकड़ों के अनुसार प्रति हजार पुरुषों के अनुपात में महिलाओं की संख्या 972 से 933 के बीच रह गई थी । लिंग अनुपात गिरावट का मुख्य कारण प्रसव पूर्व लिंग -परीक्षण तकनीक है । डॉ ऊर्जा इसे जानती व समझती थी अच्छी तरह से । सो उसने सर्वप्रथम इसे गैरकानूनी घोषित करने के लिए अपने अस्पताल के बाहर बोर्ड लगवाकर दण्ड का प्रावधान भी लिखवाकर लगवा दिया ।
. इसके अलावा उसने अपने से संबंधित स्कैन.सेंटर को भी सन्देशा भेजा कि यह काम बन्द किया जाए । साथ ही उस पर कड़ी निगरानी भी रखी । वह जानती थी कि सब लोग उससे रुष्ट हो जाएंगे । क्योंकि उनकी कमाई पर असर होगा । लेकिन उसके भीतर सत्य की ज्वाला धधकने लग गई थी । मानो राह की अवरोधक चट्टानें भी अब उसे रोक नही पाएंगी । वह बरसों की बेहोशी से अब तो होश में आई थी । और आज रात्रि के स्वप्न में उसने उर्वरा धरा पर बीज फूटने से नन्हे -नन्हे पौधे उगकर लहलहाते देखे । उन्हें देख कर मदुल आनन्द से उसके मन प्राण सिहर उठे ।
वीणा विज उदित
August 7th, 2016 at 11:11 am
वीणा जी,
सामयिक मुद्दे पर लिखी सार्थक कहानी है यह आपकी। ‘अनहद कृति’ के सजग मंच पर ऐसी कहानियों का हम स्वागत करते हैं। यदि इसे किसी अन्य ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ नहीं भेजा तो आगामी अंक सितम्बर,२०१६ में हम इसे प्रकाशित करना चाहेंगे। anhadsahitya@gmail.com पर आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
सद्भावनाएँ-
प्रेमपुष्प
December 13th, 2016 at 7:50 am
प्रेम जी,
आप ‘सहेली ‘ कहानी ले सकते हैं। किसी को भेजी नहीं अभी तक ।
आशा हैै स्रर्व मंगल होगा ।अमेरिका में हूं ।
सादर,
वीणा विज उदित