दुश्मने जाँ (ग़ज़ल)
तमाम उम्र गुफ्तगू चली
चैन मिला न क़रार आया
ज़िंदगी तेरी चौखट पर
मिली भी तो सहर बनकर ।
रह-ए-इश्क में कई मुक़ाम आए
जो न देखे थे वही क़याम आए
ख़ैर-मकदम को उनके
आसमां जमीं हो चला
महताबे रोशनी से सराबोर
इश्क लिपटा सिहरन बनकर ।
ताउम्र, बेपरवाह पूछा न किये
जफाओं के नश्तर चुभोए
क़ातिल मेरी ही आग़ोश में
सिमटा जाने जाँ बनकर ।
मेरा हमनवास,हमराज,हमसफर
जिसकी दोस्ती का था भरम
अल्फ़ाज़ों के खंजर चुभोए’वीणा’
मेरा ही दुश्मने जाँ बनकर ।
वीणा विज’उदित’