ठूँठ

दरिया तीरे

हरियाली अपार

द्वीप के मध्य

अकेला

तना था ठूँठ ।

बाट जोहता था

बसंती बयार

फागुनी धूप की ।

सूखे थे सभी

हरीतिमा लपेटे वृक्ष

सर्द शरद में

मृतप्रायः से।

फूट पड़े सभी में

नव अंकुर बसंत में

लहलहाए धीरे-धीरे ।

अभागा ठूँठ ही

रहा सूखा

धूप ने सेंका

बासंती झोंके लहराए

मेघों से बूँदें झरीं

फिर भी गोद न भरी

बाँझ की पीड़ा

झेलता मायूस

ठूँठ…।

पुनः आस्था मुर्झाई

इस बार भी

इंतजार !

हरे वृक्षों के पत्ते हरे

लगे मुँह चिढ़ाने

कोंपलें इतराईं

संगी-साथी छोड़ गए

वे सब हरे-भरे ।

कैसी किस्मत पाई

विश्वास की डोर

थामे हर पल

बेरंग,

बेजान

स्वप्न देखता

फिर सुबह होगी जीवन की

चिर आस लिए

है प्रतीक्षारत…फिर भी

ठूँठ !!

वीणा विज उदित

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