ख़ुद को ज़िंदा रखता हूँ !
दिखने में हूँ एकदम तन्दरुस्त
काम करता दिखता हूँ चुस्त
सच कहूँ अब जल्दी थक जाता हूँ
बीच-बीच में थोड़ा सुस्ता लेता हूँ ।
लेटे रहने से मिलता है आराम
नींद न आने से रात जागता रहता हूँ
आदतन अब घर में ही टहलता हूँ
गिनती के कदमों से मन परचाता हूँ ।
फासलों से मारी गई है अक्ल
फोटोस से याद रखता हूँ शक्ल
दिन-रात अपनों की ख़ैर मनाता हूँ
उन्हीं अपनों को जताने में हिचकता हूँ।
भीड़ में बैठकर भी रहता हूँ तन्हा
हाले दिल बयां से नहीं कुछ हासिल
नई दोस्तियाँ करने से धबराता हूँ
मन की उड़ान पर काबू रखता हूँ ।
बिस्तर पे लूं चाय की चुस्कियां
गोद में रख थाली,तोड़ूं बुरकियां
मन में रख उपेक्षा से घबराता हूँ
बासे रिश्तों में ताज़गी तलाशता हूँ।
दास्ताने दिल क्या बयाँ करूं यार
जैसा था,वैसा नहीं रहा मैं अब
ज़िंदा हूँ ‘मैं’ किसी को फ़र्क नहीं
चेहरा दिखा,खुद को ज़िंदा रखता हूँ।।
वीणा विज’उदित’