कैसी टूटन
साँझ ज़िदंगी की यूं ढली
कि मै टूट गया
ऐसा टूटा कि बिखर गया
ऐसा बिखरा कि
अपने हिस्से की ज़मीं
के क़तरे-क़तरे पर
इक-इक कण में समाता गया
कण -कण भी कब बिखरे रह पाए?
क्रमश: जुड़ते चले गए
संवेदनाओं के ज्वार से
यूं जुड़े, जड़-प्रकृत हो गए
इस जड़ में अब चेतना आए–
चेतना भोर की किरण सी
अनहद नाद का गान करती
आत्मा- परमात्मा में हो लीन
दु:ख -सुख से परे़
अंधकार – प्रकाश न तकती
निर्विकार सम भाव सी
अंतस् से निकले
गहन अंतर्भाव जगने के
अलाप की लय सुनने
श्यामलता बिखेरे नि:स्पन्द !
स्वः के समस्त में विलीन होने सी
ऐसे में तन और मन हो
जब कुण्ठामुक्त
फिर कैसी टूटन… ?
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वीणा विज ‘उदित’