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बेवफाई की इंतिहा की है नींद ने
खुद सोती है मेरे बिस्तर पर
हम उसकी राह तकते
जगते रहते हैं रात भर।।
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इक अश्क बेज़ार हो आँख से ढुलका
दूजा पलकन की ओट में अटका किया
शिद्दत थी दर्द़ की इस कद्र कि
आँख की किरकिरी बना रह गया ।।
*
तसल्ली
—–
छिपाए रखा है
दिल के इक कोने
तुम संग गुज़ारे
खूबसरत लम्हों को
तुम्हारी नाराजगियाँ
बढँती हैं जब हद से
‘गुज़िश्त’ के सदके
उनकी आगो़श में ही
दिल बहलता है अब..।

गुज़िशत-जो बीत गया(़फारसी)

*
आपकी बेरुखी से ज़हन में उग आते हैं कांटे
लहू-लुहान कर जाते हैं मेरी ज़िंदगी ।
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ख़ारों से भी कर लिया है याराना
आप की खातिर अब यार
शुक्र है आपकी नज़र में हम
इश्क़ के क़ाबिल तो हुए !
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जुस्तज़ू थी पहुँचें मंज़िल तक
बदकिस्मती देखिए ,
बिछुड़े हैं कारवाँ से !
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मौजें समुन्दर की ले चली थीं
हमें दूर बहुत दू..र
कि साहिल ने आग़ोशे करम कर दिया!
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तन्हाइयों की तल्ख़ी ने यूं सताया
कि यादों की रहगुज़र में
हमने आशियाना बना लिय।
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आईने में उतरी अपनी
तस्वीर के नक़्श पर गौर फरमाइये
तमाम उम्र की
तफ़सील नज़र आएगी !
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इन्तहाई परेशां हूँ
दामन बचाऊँ कैसे
बढ़ता चला आ रहा है
नंगी परछाइयों का कारवाँ !
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कैसे रिश्तों को समेटे लोग
अपनी ही परछाइयों से डरने लगे हैं ।
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शमा के पिघलने के संग-संग
तुम्हारी आँख से पिघलकर हम
इख़्तियार कर रहे हैं शक़्ल
इक अनछुए ताबूत की ।
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भीड़ में तन्हाई का आलम है
क्यूं मेरे अपने जो थे
बन गए अन्जानी परछाईं
मस्ती में गुनगुनाता मन
चाहे है ग़ज़ल की रुसवाई !
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तुम तो तन्हा कर चल दिए
काश! मुड़ के देखा होता
आँखों का समुन्दर होना !
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जो फसाने दुनिया से छिपाए जाते हैं
आँखों से आँखों को सुनाए जाते हैं।
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कह दो बादलों को बदगुमानी न करें खुद पर
प्यास बुझाने को तो शबनम के क़तरे भी हैं ।
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ख़्वाहिशें कब थीं गुल की हमें
ज़हे नसीब इक ख़ार तो झोली में मिला ।।
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फड़फड़ाती लौ आख़री दम पे है
जब तेल ही मुक गया,अब क्या कीजे !
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ठहर सीने के दर्द़,दिल ने इल्तज़ा करी
अभी दोस्तों से रुख़्सती की इजाज़त नहीं ली है ।
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धीरे से पाँव-पाँव दिल में उतर के देखा
सूरते अहवाल मिला फाख़्ताएँ उड़ने को तैयार हैं।
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सीने में ख़लिश,आँखों में इक तूफां उमड़ा है
होठों पे सिसक,हर पेशानी पर बल सा पड़ा है।
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“लिख दो किताबे दिल में कोई ऐसी दास्तां
जिसकी मिसाल दे न सकें सातों आसमां ।।”
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“सियाह बख्ती में कौन साथ देता है ,
कि तारीकी में,साया भी जुदा होता है इंसां से ।।”
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इक ख़्याल उमड़ा है हर्फ़ों को तलाशता
ज़हन में रखने को लफ़्ज़ तो बोलो कोई ।।
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इक हर्फ़ को ढूँढे है ख़्यालों का कारवाँ
न जाने कब नज़्म की शक्ल इख़्तियार होगी!!
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शाख से गिरे ताज़ा सब्ज़ पत्ते जैसी
तेरी शोख़ हँसी मेरी नज़रों में बसी ।।
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दिल की लय में छाई इक बेनाम सी उदासी
छेड़ो नग़मा, गाओ ग़ज़ल शायराना सी !
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दर्द-औ-ग़म की दोस्ती में
ज़ख़्मों की आदत जिगर को हो गई …।
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वीणा विज ‘उदित’

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