एक यत्न
नित्य होता शब्दों का नृत्य
ख़बरें उड़तीं, चर्चे होते
मीडिया बेलगाम जपता
आदम हव्वा के किस्से
भौतिकता साँस लेती
संवेदना लुप्त होती जाती
शब्द शक्तिहीन
सियाह कालिमा केवल
चेहरे पर नाक नहीं
हाथों में कलम छोटी हो गई
अक्षरों का कद
आदमकद से ऊपर उठ गया
दिमागों की बत्ती गुल है
लावारिस अक्षर
सड़क किनारे लगे
लैम्पपोस्ट से ऊर्ज़ा माँगकर
जन्म दे रहे हैं
इक रूहानी इबारत को
लो,
बोलने लगे हैं अक्षर
हवाओं में मचा है शोर
सारा माहौल
संवेदन हीन हो चुका था जो
शब्दों से भर गया
अन्तर्जाल है इक उम्मीद
संवेदनशील होने का
एक यत्न!!!
वीणा विज ‘उदित’
March 4th, 2008 at 9:20 pm
अति उत्तम..बधाई.