इक फौजी की दास्तान
हमेशा की तरह स्टेशन पर इतनी भीड़् !! इस बार दिल्ली से अमृतसर जानेवाली शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन में शाम को बैठते ही लगा, सफ़्रर काटने के लिए मेरे विचारों का सफ़र मुझे यूं अपने में बाँध लेगा कि पाँच घंटॉं का सफ़र अकेले पता भी नहीं चलेगा |फिर क्या सोचना भीड़ का, और क्या अकेलापन?बैठते ही अख़बारों का पुलंदा हाथ में ले लिया | मेन ख़बरों पर सरसरी नज़र डाली | खुशवन्तसिंग का काँलम मैं अवश्य पढती हूँ,लेकिन वो भी ध्यान को बाँध नहीं सका |इस बीच साथ वाली सीट पर एक नौजवान लड़का आकर बैठ गया था |तभी वेटर चाय व जूस लेकर आ गया |लगा ,ये रेल्वे वाले ठंडा और गरम पेय एकसाथ क्यों सर्व करते हैं?मन ही मन खीझकर , चाय तो पी ही ली |तदोपरांत, विचारों के सफ़र पर जाने की तैयारी में ही थी कि साथवाले नौजवान ने पूछा, “आप भी अमृतसर जा रही हैं?”यानि कि वह अमृतसर का मुसाफिर था |”नहीं मैं जलंधर जा रही हूँ,” मैंने उत्तर दिया , व पुनः हाथ में अख़बार उठा ली |दो अंजाने मुसाफ़िर जब बस या रेलगाड़ी में साथ बैठते हैं,तो ऍसा सवाल आम तौर पर कर ही लेते हैं |सो मैने ख़ास तवज्जो नहीं दी |डिब्बे में बच्चों की चिल्लपों, सप्तम स्वर में सैल फोन पर तरह-तरह की बातें,आपस में ऊँची आवाज़ में बातें–सब मिलाकर शोर असह्य हो रहा था |लेकिन – कुछ नहीं हो सकता था |
बाहर देशों में sub-way (train)पर सफ़र करो , तो केवल पटरी बदलने की आवाजों के कुछ और सुनाई नहीं देता |दूर क्या जाना? आज से तकरीबन बीस साल पहले कन्याकुमारी से त्रिवन्तापुरम का सफ़र हमने रेल से किया था |वहाँ हर मुसाफ़िर के हाथ में कोई न कोई किताब, मैग़ज़िन या अख़बार था, जिसे वह पढ रहा था |तीन घंटॉं का एकदम शांत सफ़र ! वह मंज़र आज भी आँखों में बसा हुआ है |केरल के लोगों के लिए मन में तभी से आदर आ गया है |काश!….
सोचा, थोड़ा सो ही लेती हूँ; कि तभी कानों में आवाज़ पड़ी,” मैडम जी! यह गाड़ी यहाँ क्यों रुकी है?” मुझे भी लगा, सो मैंने आँखें खोलकर बाहर देखने का यत्न किया|आबादी से दूर खड़ी थी गाड़ी |”लगता है किसी गाड़ी को पास देना होगा”, कहकर मैं चुप हो गई|गाड़ी बार-बार खड़ी हो रही थी, न मालूम क्यों? रेल्वे की मर्ज़ी है,जब गन्तव्य पर पहुँचाएगी –तभी तो पहुँचेंगे न! कि तभी वह फिर बोला,”गाड़ी इस तरह चलेगी ,तो अमृतसर पहुँचने में आधी रात हो जाएगी न !जलंधर से अमृतसर पहुँचने में कितने धंटे लगेगें जी? “लगा यह बातें करना चाहता है, मुँह फेर लूँ |पर इंसानियत के नाते पूछ बैठी,”क्या कहीं बाहर से आ रहे हो? झट बोला,”जी हाँ मैं गोहाटी से आ रहा हूँ|फौजी हूँ| इंक्यावन दिनों की छुट्टी पर घर जा रहा हूँ |अमृतसर से मुक्सर जिला बँगेवाला जाना होगा |” लगा, बेचारा सच ही तो कह रहा है, उसे आधीरात हो जाएगी घर तक पहुँचते |लेकिन —कोई चारा नहीं था|
उसके हाथ में सैल फोन था |उसने उसमें मुझे फोटो दिखाते हुए कहा,”मैडम जी !यह देखो पानी का झरना बर्फ़ का बन गया है |यह किनारे हमारी फौजी गाड़ी बर्फ़ में फँसी है | (मैंने पास होकर ध्यान से देखा) वहाँ हमेशा बर्फ रहती है |बहुत ठंड़ होती है जी ! गोहाटी (आसाम) से सौ कि.मी.पर Sanga Training Camp है, वहाँ तक तो फौजी गाड़ियों से जाया जाता है|उससे आगे हमारे बेस कैम्प तक बर्फ़ ही बर्फ़ है, वहाँ गाड़ी नहीं जाती |हमें वहाँ तक पहुँचने के लिए पैंतीस कि. मी. बर्फ़ में लम्बे-ल्म्बे बूट पहनकर चलना होता है |”उसकी बातें सुनकर मेरी रुचि उसमें बढ रही थी |मैंने पूछा,”आप इतनी बर्फ़ में क्यों बैठे हो वहाँ? आपके कैम्प में कितने लोग होते हैं ?यह कौन सी रेजीमेंट है?” उसे जैसे मन चाही मुराद मिल गई हो |अपने मीलों लम्बे सफ़र की मंज़िल क़रीब जानकर शायद वो चंद बातें साँझी करके वक़्त को पीछे धकेलना चाह रहा था |उसमें बातें करने की उमंग जाग गई ,साफ़ दिखाई दे रही थी| वह बहुत अदब से धीमी आवाज़ में बात कर रहा था|उसने बोला,”जी मैं अंग्रेज़सिंग, उम्र तीस साल ; फौज में पिछले बारह साल से सिपाही हूँ |मेरे घर में बापूजी, माँ,बीवी और तीन साल का एक बेटा है |मेरा छोटा भाई भी पंजाब में फौज में है |बापूजी भी फौज से रिटायर हुए हैं |हमारी पंजाब रेजीमेंट है | मेरे बेस कैम्प में २५ सिपाही, १ अफ़सर (लेफ्टीनेंट)और १ जे.सी.ओ है |वहाँ चीन से भारत के बाँर्डर की सुरक्षा के लिए हम बुखारिया में तैनात हैं |चीन और भारत का समझौता हुआ था कि २०११ तक वहाँ हमला नहीं होगा , लेकिन अब इसकी मियाद बढा कर २०१५ कर दी गई है |” मुझसे रहा नहीं गया मैं बीच में ही बोल पड़ी,”ऍसा है तो फिर आप बर्फों में क्यों बैठे हो?”वो बोला,” जी! ये तो सरकारों की बातें हैं| हम फौजियों ने तो ड्यूटी करनी है|हाँ मन में तसल्ली रहती है कि अगर हमला नहीं हुआ, तो जान सलामत रहेगी |फिर भी हम चौकन्ने रहकर दिन-रात पहरा देते हैं |इनका क्या भरोसा? ” उसी पल से मेरा मन उस नौजवान सिपाही के लिए आदर से भर उठा | सर्दियों में हम फ्रिज का पानी तक नहीं पी सकते ;और कहाँ यह फौजी हमारी सरहदों की रक्षा करने और हमें चैन से जीने देने के लिए दिन-रात फ्रीजिंग टैम्परेचर में सोते -जागते व रहते हैं |मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी| मैंने पूछा, “तुम लोग बर्फ़ पर खाना कैसे बनाते हो?नहाते व सब रोजमर्रा के काम कैसे करते हो?”इस पर वह हल्का सा मुस्कुरा कर बोल उठा,”मैडमजी! खाना वहाँ कैसे बन सकता है? हर दिन हैलीकाँप्टर हमारे खाने के पैकेट गिरा जाता है| हमारे पास अपने-अपने चार बर्तन होते हैं |रही बात नहाने की; तो महीने , दो महीने में पानी गरम करके शरीर पर डाल लेते हैं |”
“वहाँ वक्त काटने के लिए टी.वी का सहारा होता होगा न!”, मैंने फिर पूछा|
“कहाँ मैडमजी! वहाँ टी.वी नहीं होते |सैल फोन में कुछ गाने भरे होते हैं, वो भी कितनी बार सुनो? बस पहरा देना ही हमारा जीवन है |बंदूक उठाकर बर्फ़ में अपनी-अपनी पोज़ीशन पर खड़े रहना| वैसे कोई बात नहीं|(शान से ) हमें तनख़्वाह पैंतीस हजार मिलती है जी! रेल्वे की टिकट भी फ्री होती है | बहुत तसल्ली है |हमारी माँ कहती है कि गाँव वाले हम फौजियों के परिवार की बहुत इज़्ज़त करते हैं|बापू जी की वहाँ बड़ी टौर(शान) है|मेरा बेटा फोन में कहता था कि उसे भी एक बंदूक चाहिए |उसकी माँ ने उसे बताया है कि उसके डैडी वहाँ दिन-रात बंदूक के साथ रहते हैं |उसने भी बंदूक के साथ दिन-रात रहना है |अपने डैडी जैसा बनना है |गाँव में उठने-बैठने में हमारा बहुत आदर है जी |”थोड़ी देर के लिए वह चुप हो गया |शायद वह ख़्यालों में अपने परिवार में अभी से पहुँच गया था |
तभी खाना आ गया| खाने के बाद वह फिर बोलने के मूड में आ गया लगा |बोला,”मैडमजी! अगर आप ‘हाँ’ कहो तो आपको वहाँ का एक सच्चा किस्सा सुनाऊँ?
नूरा और शीला का|”
मैं सोच में पड़ गई कि आजकल मुन्नी बाई और शीला की जवानी के किस्से तो हर ऍरे -गैरे की ज़ुबान पर हैं|तो क्या यह फौजी भी इससे अछूते नहीं रह पाए हैं |
मैंने मुस्कुराते हुए हामी भर दी |एक घंटे का सफ़र अभी बाकि था | सो मैं तसल्ली से उसकी ओर देखकर किस्सा सुनने के लिए बैठ गई |वह बोला, ” आरुणाचल-प्रदेश में जसवंतगढ जाने के लिए रास्ते में ३५ कि.मी पर नूरा टाँप और शीला टाँप दो पहाड़ियाँ क्रास करके आगे २० कि,मी पर जसवंतगढ आता है |त्वाँग पहुँचने के लिए जो भी फौजी गाड़ियाँ जसवंतगढ से गुजरती हैं, वे वहाँ बने गुरुद्वारे में माथा टेककर ; वहाँ हर समय बनते चाय और पकौड़े का लंगर(खाना) खाकर ही आगे बढती हैं |सन १९६२ में वहाँ तैनात डोगरा रेजीमेंट में जसवंतसिंग और गोपाल नाम के दो सिपाही करीब २५-२६ साल की उम्र के थे |इन दोनों का वहीं दो पहाड़न बहनों नूरा और शीला से इश्क हो गया था | इस बात को उनके बेस कैम्प में तैनात सभी फौजी जानते थे ,सो उनका आना-जाना लगा रहता था |
तभी चीन ने भारत पर हमला कर दिया | इनकी टुकड़ी भी सरहद पर लड़ने पहुँची |यह दोनों बहनें भी पीछे-पीछे वहीं पहुँच गईं | जब ये दोनों सिपाही दुश्मन की गोलियों से ज़्ख़्मी हो गए, तब इन दोनों बहनों ने बहुत बहादुरी दिखाई |ये बेस कैम्प से कारतूस ला-लाकर इन फौजियों को पहुँचाती रहीं ; और वे ज़्ख़्मी हालत में लेटे गोलियाँ चलाते रहे | इस तरह इन्होंने ७२ घंटे गोलियाँ चलाकर चीन की फौज को रोके रखा था| बाद में वे भी सब शहीद हो गए थे |
जसवंतगढ और वहाँ का गुरुद्वारा उसी सिपाही के नाम पर हैं | वहाँ इन दोनों की मूर्तियाँ भी बनाई हुई हैं | फौजी हुक्मुरान ने नूरा और शीला की बहादुरी पर वहाँ स्थित दोनों पहाड़ की चोटियों के नाम ‘नूरा टाँप एवम शीला टाँप’ रख दिया |आज मरणोंपरांत भी फौज में उन सिपाहियों का रैंक बढकर कैप्टन का हो गया है | “इतना सुनाकर वो चुप हो गया |
मैं भी नूरा और शीला के प्रेम और बलिदान पर अभिभूत हो गई थी |देश के इक सिपाही ने अपनी और उनकी ऍसी दास्तां सुनाई कि यह सफ़र विचारों के सफ़र पर फिलहाल भारी पड़ गया था |विदा के समय मेरे मुँह से निकला “जय हो!”
March 25th, 2011 at 5:55 pm
Hi didi I like this story.
March 28th, 2011 at 10:06 pm
I LIKE THIS STORY AND I AM VERY impressed
April 8th, 2011 at 1:48 am
i really like the story
June 25th, 2011 at 8:41 am
Hello,
its too good…i like it..
July 4th, 2011 at 10:22 am
Its really a heart touching story.
Really our soldiers work very hard for ourselves.
I am saluting them.
Jai Ho
July 9th, 2011 at 2:21 am
really heart touching story. i liked it very much. nice superb
July 11th, 2011 at 6:42 pm
बहुत सुन्दर कहानि है.