इक पन्ना

वो भी ग़ज़ब की
शाम थी अल्साई सी!
ज़ुल्फ़ों के घने साये
तेरे शाने पर बिखरे- बिखरे थे!
तभी
ज़िन्दगी की किताब का
इक पन्ना
उनमें उलझकर
अटक गया वहीं पर!
बयाँ होने को थी
इक दास्तान
अभी इरशाद कहा ही था
अफ़साने करवट लेने लगे!
कि, लफ़्ज़ दर लफ़्ज़
साँसों की रवानगी में छिपी
अनकही बातें
बाख़ूबी समझ आईं!
रोशनाई कहाँ थी इतनी
कि तराशकर
रंग भर कर अफ़साने
इक ज़ुबाँ बन पाते!
मसला यूँ हुआ
संजीदग़ी से वही इक पन्ना
सब समझा किया
शाम को बहार कर गया!!!

वीणा विज ‘उदित’

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