इक आलिंगन !
चाँद की चाँदनी से छिपकर
श्यामल मेघों की ओट में
आओ, मिलन की चाह में
चुपके से , ले लें
इक आलिंगन !
सूर्यकिरणें आती छनछन
गरमातीं पत्तोँ के तन
आओ, सुबह की ओस बनकर
पत्तों पर लुढ्क,ले लें
इक आलिंगन !
साँय-साँय हवा के शोर से
लरजतीं पेड़ों की डालियाँ
आओ, पत्ते बन डाली से छर
इक -दूजे पर गिर,ले लें
इक आलिँगन !
फागुन की सजीली धूप में
खुलता कसमसाता बदन
आओ, गुनगुनी धूप बनकर
बदन से लिपट, ले लें
इक आलिंगन !
वीणा विज ‘उदित’