आशीष (लघु कथा)
छाती ठ्ण्ड़ से जकड़ जाने से जुकाम व खाँसी का जोर था जिससे मनु तेज बुखर से बेसुध पड़ी थी |पाँच साल की नन्ही जान को इतने कष्ट में देखकर भारती का अपना हौंसला भी टूट रहा था |दवाई तो मानो असर ही नहीं दिखा रही थी |कमरे में रूम-हीटर चलने के बावज़ूद भी ठंड़ महसूस होती थी |सारा दिन वो मनु को गोद में लेकर बैठी रही थी | सोमेश के आँफिस से लौटते ही भारती ने मनु को उनकी गोदी में दिया और अपने चेहरे पर आई मायूसी को ताज़ी हवा के झोंके से कुछ कम करने के लिए निक्कू पार्क के सामने की सड़क पर टहलने निकल गई | साँझ के ट्रेफिक से बचने के लिए ,सड़क के किनारे लगे घने पेड़ों के नीचे चलते हुए उसने देखा – एक दुबली पतली भिखारिन एक बच्चा गोद में उठाए व तकरीबन चार-पाँच साल की बच्ची को दूसरे हाथ से घसीटती हुई मार्केट की ओर तेज कदमों से बढ़े जा रही थी |उसके पाँव में रबड़ की चप्पल थी लेकिन बच्ची , जिसके सिर व छाती पर एक दुपट्टा लिपटा था वो इस कड़ाके की ठंड में नंगे पाँव थी |उसका नाक बह रहा था व उसकी साँस खड़क रही थी , मनु की ही तरह |भारती के मातृत्व को यह गँवारा न हुआ||उसने उस औरत को रोककर पूछा कि इस बच्ची को पैरों में कुछ पहनाया क्यों नहीं ?
वो बोली , ‘हमार पास ए के लाने चप्पल नाही है ” प्रत्युत्तर में भारती का मातृत्व उसे नम्र बना गया |उसने उस बच्ची का हाथ पकड़ा और उसे मार्केट की ओर ले गई |वहाँ ‘अवतार शूज़’ पर पहुँचकर उसे जूते ले दिए |
पीछे-पीछे आती वह भिखारिन भाव -विभोर हो भारती के पाँव छूने लगी तो भारती ने उसे बीच में ही पकड़ कर उठा लिया व स्नेह से उसका कंधा थपथपाया |इस पल वे दोनो” माँ ” थीं |वो भिखारिन उसे आशीषें दिए जा रही थी |भारती वापिस आ रही थी |शांत व संयत ! एक आत्मिक सुख का बोध हो रहा था उसे |जैसे ही वो घर पहुँची ,हैरान हो गई |देखती है कि मनु पापा के साथ खेल रही है |उसका बुखार उतर गया था |भारती की आँखों के सामने भिखारिन की आशीषें थीं ,जो उस पर बरस रही थीं |
वीणा विज “उदित”