अभिसार
ढलता जाता दिन
साँझ की आग़ोश में
बँधने को आतुर
मिलन की बेताबियों
में मदहोश हो
चाँद पाने की हसरत लिए
राहगुज़र भूली है अभी
रात चलती-चलती
करने को अभिसार …!
उजियारे पछाड़
साँझ संग समेट
रफ़्ता-रफ़्ता चल पड़ी
बाट जोहती प्रियतम की
गर्वित है अभियान पर
दूरियां तय कर रही
मीलों लम्बी इक बार …!
श्यामल बदरी-अंक
सोया हरजाई
संत्रस्त किरणें झांकें
ओट से अल्साई
किरणों ने बढ़ आगे
सत्वर किया आलिंगन
बेताबियों से हेरती थी जिन्हें
अवसन्न रात्रि बेइख़्तियार …!
रीझ उठा तभी चन्द्र
गहन रात्रि के सौन्दर्य पर
रसपान किया जी भर
तृषित अधरों का
अमृत रस बरसा
अभिसार की वेला में
खिली मुक्त चाँदनी
बाहुपाश में बँध
मधुरिम चंद्र को निहार …!
इठलाती,कालिमा फैलाती
प्रिय अँग लग गदराई
प्राची में लख तनिक आभा
हुई विलीन त्वर लजाई
समेट अँधकार की चादर।
कह रहे थे दास्तां
आग़ोशिये करम की
अपराजिता के फूल
बिखरे इधर-उधर …!!
वीणा विज ‘उदित’