अनूठा प्रतिकार
उर्वरा माटी थी बगिया की
रोपी पनीरी फूलों की
कोमल , नरम गोशे प्रस्फुटित
खिलने को आतुर हर्षित
गलबैंय्या हुलारते आ लिपटीं
पाँव में कोई जड़ें थीं अजनबी
अपनत्व देख हुईं अचम्भित
हरीतिमा कोढ़ भरी थी खिली
तन को थी बींध रही नुकीली
हुलर-हुलर बढ़ रही नागफनी
कुरूप देहयष्टि छलनी करती
सहमी कोंपलें खिलने से डरीं
कैसे, किसने रोपे ऐसे बीज..?
खाद में आए, वरुण प्रकोपित
या फिर.. सूर्य रश्मियाँ लाईं
प्रदूषित कण-कण को लपेट ।
मृदु दुलार का प्रतिकार अनूठा
रावण था मुखौटे ओढ़े खड़ा
विलक्षण सान्निध्य काँटों भरा
बेबस टहनियां पीड़ित बेहाल
लहू समेटता अनिल झकोर
नागफनी की छाँव तले
उजड़ी नव क्यारी करे गुहार
सहमी- सहमी दूब कहे
बरखा की बूँदों को पुकार
तन पर झरो, पीर हरो
बाणों की शैय्या से
भीष्म का निर्वाण करो ।।
….. वीणा विज उदित