अंतस्सलिला

देती हैं दस्तक स्मृतियों में
बाल्यकाल की उन्मुक्त हँसी ।
समय आगे सरका किया
ख़्वाहिशें,उमंगें रहीं अधूरी…।
ढलती साँझ में सखियों संग
याद आई है’पिट्टू’की पारी ।
गुड्डी-गुड्डे के ब्याह रचाये
चूड़ियों की गुमी पिटारी…।
भैया डोर खींचें पतंग की
आगे-पीछेे घूमूं ले चिकारी ।
*
बनूं’सीगल’भरूं ऊँची उड़ान
नीला-नभ पंखों में समेटूं…।
अँत:सलिला-धार के दर्पण में
मन के छिपे सन्नाटे देखूँ …।
रिम-झिम बरखा फुहार में
लाज के बंधन तोड़ थिरकूं…।
संग सहेलियों फिरूं मदमस्त
दिल की कहूं-सुनूं,रैना जगूं…।
लेकिन…
मुक गए ख़्वाहिशों के ढेर
बेहतर है…
अंतस्सलिला का रुख़ मोड़ लूं ।।

अर्थ:-
‘पिट्टू’-एक खेल,’सीगल’-सबसे ऊँची उड़ान भरने वाला पक्षी।
By,
वीणा विज’उदित’

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