हज़रत शेख- उल -आलम के जां नशीन हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन की ज़ियारत गाह ऐश मुकाम

ह्ज़रत हज़रत शेख- उल -आलम नूरूद्दीन नूरानी से पहले भी कश्मीर में काफी सूफ़ी संत इस्लाम में मौजूद थे|मगर फिर भी हज़रत शेख – उल -आलम को ही सूफ़ी संत माना जाता है| दरअसल इन्हीं ने ही दम तोड़ती हुई शरयत की रिवायत को असर नौ (नये सिरे से)मज़हबी बुनियादों पर इस्तवार (शुरु) किया| हज़ारत शेख़- उल -आलम से कबल सूफ़ी संतों का दरवाज़ा हर मज़हब और हर कौम के लिए खुला रहता था| मगर हज़रत ने पहले कबूले इस्लाम को एक लाज़मी शरत क़रार दिया | इन्होंने बेशुमार लोगों को शरयत के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया|
इसी पाक जमात में एक दरखशिन्दा व ताबिन्दा नाम हज़रत शेख़ -उल- आलम के प्यारे ख़लीफा हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन वली का नाम है| जिन्हें लोग “ज़ैनु शाह साहब ” के नाम से याद करते हैं| जिन लोगों ने इसके विषय में खोज- खबर की है ,उनके मुताबिक इनका पैदाइशी नाम “ज़ैनसिंह” था| और इनका ताल्लुक किश्तवाड़ (जम्मू के पास) के राजपूत राजघराने से था| कहते हैं यहीं आठवीं सदी हिज़री के आख़ीर में इनकी पैदाइश हुई थी | लेकिन , फिर कुछ लोग इस पर ऐतबार नहीं करते हैं| इलाका किश्तवाड़ का मौजू बादरकोट था| पिता का नाम नौयमन था| राजपाट के मसले और आपसी खाना जंगी की वजह से इनके बचपन में ही उनका क़त्ल कर दिया गया था| इसके बाद इनकी परवरिश की जिम्मेदारी इनकी वालिदा (माँ) पर आ पड़ी थी| हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन वली (रहमतुल्ला अलेरह) के बचपन के हालात में बयां किया गया है कि बचपन में एक दफ़ा ज़ैनसिंह की तबियत बहुत बिगड़ गई , यह देखकर उनकी वालिदा परेशान हो गईं|
अचानक,हज़रत शेख़- उल -आलम वहाँ से गुजर रहे थे| उन्होंने सबब पूछा- पता चलने पर हज़रत ने ज़ैनसिंह की वालिदा से कहा, “मेरे साथ वादा करो कि अगर यह बच्चा सेहतयाब हो गया तो तुम इसके साथ कश्मीर आकर मुसलमान हो जाओगी|” बच्चे की ख़ैर के लिए माँ ने वादा कर लिया| बाद में उनकी दुआ से बच्चा तंदरुस्त हो गया| और उसकी माँ ने वादे के मुताबिक कश्मीर जाने से तग़म्फुल किया, जिससे ज़ैनसिंह फिर से बीमार हो गया| अब माँ ने तग़म्फुल का मतलब समझा| नतीजन ,फौरन अपने बेटे को लेकर कश्मीर रवाना हो गई|
इधर, हज़रत शेख़ -उल -आलम ने अपने ख़लीफा अव्वल हज़रते बाबा बामदीन रहमतुल्लाह को इनकी बावत बताया और उनको इन माँ-बेटे की मेहमान नवाज़ी का हुक्म दिया| ज्यूं ही माँ-बेटा ‘बम्ज़ू’ में हज़रत बाबा बामदीन के पास पहुँचे तो बाबा ने उनकी बहुत खातिरदारी की| चंद दिनों के बाद हज़रत शेख़ -उल -आलम भी वहाँ बम्ज़ू पहुँच गए| तो ज़ैनसिंह की माँ ने उन्हें पहचान लिया कि यह वही बांदरकोट वाले बुज़ुर्ग हैं|
हज़रत शेख़ -उल-आलम ने दोनों माँ-बेटा से वादा लिया और उन्हें इस्लाम क़बूल करवाया | चुनांचे उन्होंने वालिदा को चंद दिनों के बाद रुख़सत कर दिया और खुद ज़ैनसिंह लड़कपन से ही हज़रत शेख़ – उल -आलम की खिदमत में मसरूफ़ रहे | हज़रत ने उनका नाम बदलकर “शेख़ ज़ैनुद्दीन ” रहमतुल्ला आलेरह रख दिया| इसके बाद हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन वली रहमतुल्ला आला ने ज़िंदगी भर सूफ़ी संत के आला इक़दार की खिदमत की|
हज़ारत सख़ी ज़ैनुद्दीन के पैदा होने से पहले का एक वाक्या सब की जुबान पर है वहाँ—कि जब उनकी वालिदा पेट से थीं उनके वक्त, तब उनके पेट में बहुत जोर का दर्द उठता था , वो किसी पीर के पास गईं| उसने कहा, कि.बला कि तरफ मुँह कर के घुटनों के बल बैठो| ऐसा करने से उन्हें आराम आ जाता था| यह दर्द उन्हें नौ महीने पाँचों नमाज़ की बैठक में बैठने पर ही ठीक होता था|
जब हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन बुलंदी पर पहुँच गए तो बम्ज़ू में हज़रत बाबा बामदीन की खिदमत में रहे | और उनसे भी सलूक व इरफ़ान की तालीम हासिल की| बम्ज़ू में ठहरने के दौरान हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन वली वहाँ के एक पहाड़ पर पशुओं को चराने के लिए जाते थे , और खुद एक पत्थर पर बैठकर नमाज़ पढ़ने में मसरूफ़ हो जाते थे | चुनांचे वह पत्थर आज भी उसी पहाड़ पर बम्ज़ू में मौजूद है| और इस पत्थर पर हज़रत ज़ैनुद्दीन वली के निशानात पाए जाते हैं| हज़रत शेख़ -उल -आलम के हुक्म से “ऐश मुक़ाम ” की गुफा(ग़ार) में हज़रत ज़ैनुद्दीन वली जाकर बस गए |
कहते हैं, जब ये ग़ार में पहुँचे तो वहाँ ज़हरीले साँप भरे पड़े थे | इन्होंने उन साँपों को अर्ज़ किया कि यह ग़ार अब दरवेशों को दे दी गई है| आप कहीं और जाकर बस जाओ|इस पर उन साँपों ने एक रात की मोहलत माँगी| अगले दिन वे सब एक बड़े से मैदान में चले गए| और ग़ार खाली कर दी गई| सख़ी ज़ैनुद्दीन ने इन ज़हरीले साँपों से वादा लिया था कि वो किसी को डसेंगे नहीं| साथ ही लोगों को भी आगाह किया था कि कोई भी इन्हें न छेड़े | फिर वे उसी ग़ार में चले गए, और वहीं समा गए |
जब ये गुफा में पहुँचे तो उन दिनों यह इलाका सूखे से पीड़ित था| एक देव(राक्षस) ने लोगों को तंग कर रखा था| लोगों ने इनसे फरियाद की| लोगों की फरियाद सुनकर इन्होंने अपनी रूहानी शक्ति से उस देव को पत्थर बना दिया|(ऐसा वहाँ के वासी आज भी बताते हैं)| कहते हैं कि पहाड़ के भीतर छोटी सी गुफा में जब उनको भूख लगती थी तो वे रोटी के आकार की एक लकड़ी रखते थे , उसी को पेट पर बाँध लेते थे| और भूख बर्दाश्त कर लेते थे| नफ़स की भूख के लिए वे अखरोट का छिलका खा लेते थे |(ऐसा लोग कहते हैं)| ऐश मुक़ाम में पानी की बहुत किल्लत थी| इनका एक ख़ादिम बाबा श्मशुद्दीन बहुत दूऊऊ र से ठंड के मौसम में इनके लिए पानी ऐशमुकाम ला रहा था तो वो गिर गया| गिरने से घड़ा भी चूर-चूर हो गया| वो मायूस इनके पास पहुँचा| उसे मायूस देखकर सख़ी ज़ैनुद्दीन ने एक गड्ढा खोदा और पानी के लिए दुआ की| उस दुआ से वहाँ से एक पानी का चश्मा( झरना) फूट पड़ा, जो आज भी वैसे ही जारी है, जो ऐशमुक़ाम के लोगों के जीवन में खुशियों की ताबीर देता है|
हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन वली रहमतुल्ला की ज़ियारत गाह इस्लामाबाद (अनन्तनाग)से पहलगाम की ओर १८ किलोमीटर की दूरी पर एक बड़े पहाड़ के किनारे सड़क से काफी ऊचाई पर स्थित है|पुराने दिनों मे उसी चश्मे के किनारे- किनारे चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियाँ चढ़ कर यह चढ़ाई करनी पड़ती थी| कहते हैं कि बख़्शी गुलाम मोहम्मद ने दो सौ सत्तर(२७०) सीढ़ियाँ बनवाईं थीं| वहीं ऊपर एक गुफा में बीस-पच्चीस मीटर जाकर वहीं मक़बरा है| लेकिन अब, एक घुमावदार सड़क पर किसी भी गाड़ी से उस ज़ियारत ग़ाह तक पहुँचा जा सकता है| इस ज़ियारत ग़ाह को देखने की ख़्वाहिश बरसों से दिल में थी| हम भी गाड़ी के कारण अपनी ख़्वाहिश पूरी कर पाए हैं अब| गाड़ी से उतरकर केवल सौ कदम चलने के बाद थोड़ी ढलान पर पत्थर रखकर चौड़ी-चौड़ी सीढ़ीनुमा कुछ दूरी तय कर के गलियारों से गुजरकर गुफा तक पहुँचा जाता है| सूफ़ी संत के आगे हम अपने आप सिर झुकाते हुए आगे बढ़ते हैं, क्योंकि पहाड़ की छाती जगह-जगह से फटी पड़ी है उस संत के तप के कारण |
कश्मीर घाटी में सूफी संतों का ख़ास मुकाम रहा है| वहाँ पहुँचकर जब मैंने खुदा की इबादत करी तो दिल से एक आवाज़ उठी कि उर्दू जानने वालों को तो यहाँ की मालूमात होगी लेकिन हिंदी पढ़ने वालों को भी ऐश मुकाम की ज़ियारत गाह के बारे में पता होना चाहिए| अब यह आप की पेशे खिदमत है| ज़ियारत गाह का खुला आँगन चैन और सुकून का मस्कन है| वहाँ गलियारे में एक जालीदार झरोखा भी है, जिस से नीचे झाँकने पर दूर तक फैला पूरा ऐश मुकाम दिखाई देता है| पानी के झरने के इर्द-गिर्द आबादी लिए तमाम नैमतों से भरा एक पुर सुकूं जज़ीरा बना हुआ|
कश्मीरी में वहाँ के लोग बोलते हैं ः-
सरछुम सरबल
पिंडछुम पिंडोबल
गोपछुम गुफबल
ऐशछुम ऐशमुकाम
हज़रत सख़ी ज़ैनुद्दीन कहते थे” मेरी ऐश का सामान ” ऐश मुकाम”है| मेरी राज़दारी सरबल में है”|
वीणा विज उदित

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