हथेली पर सूरज

हथेली पर सूरज (कहानी)

पारदर्शक लिफाफे में स्टैपल कर सहेज कर रखे कुछ पन्ने हाथ के स्पर्श को पाकर मानो सजीव हो उठे। बिना विलंब पन्नों को बाहर निकाल टटोलने लगी वह— तो पन्नों के मटमैले चेहरे जो बीते समय की एक किशोर अनुभूति से रंगे हुए थे, सिर निकालकर अमिता की ओर ललचाई दृष्टि से तकने लगे थे… अम्मू की उंगली पकड़कर उसे स्मृतियों के अतीत गह्वर में ले जाने के लिए , जो राख के ढेर के नीचे दबी धीरे-धीरे ज़मीं दोज़ हो चुकी थीं।
सबसे गहरी अनुभूति जिसने उसके मनो: मस्तिष्क पर से हटने का नाम ही नहीं लिया था आज फिर से सिर निकालकर उसके सामने वहीं स्टेशन का दृश्य लेकर आ गई थी।
स्टेशन से जब रेलगाड़ी सरक रही थी , तो वह खिड़की पर हाथ रखकर साथ- साथ चलने लग गया था कि शायद अकुलाए हुए कोंपलों की कोमलता और स्निग्धता से तरल हो आई अमिता की आंखें बरसेगी और होठों से कुछ प्रस्फुटन होगा ! या फिर क्या पता उसके कान अपना नाम उसके होंठों से सुनने को तरस रहे थे लेकिन अमिता गाड़ी के सरकने की आवाज कानों से ही नहीं आंखों, एहसासों, सांसो और रोम छिद्रों से भी सुन रही थी —अपनी व्यग्रता से व्यथित ! ‌और थी वहां हमेशा की तरह अब भी एक चुप्पी !! भावनाओं का ज्वार – भाटा उसके भीतर समुद्र मंथन को उतारू था लेकिन बाह्य रूप —सागर की गहराई सा शांत था।
गाड़ी की गति तेज़ होती जा रही थी , प्लेटफार्म के कोने की ढलान अब छोड़ चुकी थी। ‌ खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर वह देख रही थी—गौतम! की धूमिल होती छवि पीछे छूट रही थी और वह आंखों से अदृश्य हो चुका था!! अपना मुंह भीतर कर हथेली में मुंह छुपा विक्षुब्ध वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। फिर अपने को संयत करने का यत्न करने लगी थी इस तार- तार होते संबंध पर!
भैया को कुछ नहीं सूझ रहा था, वह तो उसे मायके के लिए लिवाने आया था। वह सोच रहा था कि अम्मू पहली बार गौतम को छोड़कर जा रही है तो दुखी है। वह उस की पीड़ा को किस तरह बंटाए , किन शब्दों से सहलाए कि वह संयत हो स्वयं को बटोर सके। उसने दिलासा देते हुए उसके कंधे पर हाथ रख स्नेह- स्पर्श का आभास कराया। क्योंकि वह पल भर के लिए भी गौतम और अमिता के संबंध में कुछ गड़बड़ है , यह कल्पना भी नहीं कर सकता था। उन दोनों का प्रेम संबंध तो जगजाहिर था।
–वह नहीं जानता था अमिता की समूची चेतना अविच्छिन्न हो बिखर गई थी।
वह यादों की सुरंग में भीतर उतरती चली जा रही थी। जवानी की दहलीज पर घटी मीठी -मधुर यादें भी कभी बिसरती है कहीं ? नई उम्र की पहली सीढ़ी पर पैर रखते ही तो वह फिसल गई थी। मां की बचपन की सखी राधा मौसी के पति “बबीना” में पीडब्ल्यूडी में एसडीओ बनकर आए थे तो अपने परिवार सहित मौसी उन सब को मिलने अपनी गाड़ी में आ गई थीं। उनकी दो बेटियां सुधा और भारती एवम् छैल- छबीला बेटा गौतम उनके साथ थे। हम व्यस्क भारती को पाकर जहां वह खिल उठी थी , वहीं गौतम जैसे सजीले आकर्षक व्यक्तित्व वाला नौजवान उसके समक्ष इससे पूर्व अभी तक कोई नहीं आया था।
बात -बात पर चुटकुला सुनाकर वह माहौल में रंगीनियां भर रहा था, जिस पर विमुग्ध होते हुए वह उसके मोह- आकर्षण में खिंच रही थी। असल में गौतम ” क्विक विटी”था और बोलने के पश्चात अपने कहे की प्रतिक्रिया हर बार अमिता की आंखों में झांक कर देख लेता था। ऐसे में दोनों जवान दिलों की नजरें मिल जाती थीं, और अंजाने में एक नए अफसाने की नींव पड़ रही थी।
जब वे लोग चले गए तो अमिता भागी हुई भीतर गई और जाकर दर्पण में अपना चेहरा देखा । उस पर खिली लालिमा को देख वह स्वयं से ही शरमा गई थी। अब से उसका सजने -संवरने का मन करता था। वह चुपके- चुपके अपने आईने से मूक वार्तालाप किया करती। गर्मी की छुट्टियां थी तो मौसी ने चिट्ठी लिखकर अपनी सखी को परिवार सहित आने का निमंत्रण भेज दिया। बाबू तो काम में व्यस्त थे, लेकिन अम्मा तो उत्साह से भर उठीं और सखी से बतियाने और संग समय बिताने के चाव में वह अपनी दोनों बेटियों यानि अमिता और बावा को लेकर पहुंच गईं बबीना।
स्टेशन पर गौतम उनको रिसीव करने आया हुआ था। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनकी उठती- गिरती नजरों का ऐसा आदान-प्रदान हुआ कि वहां का मौसम ही बदल गया था। फिर तो अगले 10 दिनों में, वे दोनों हर पल को इकट्ठे जी रहे थे । ढेरों शरारतें, गीत -गजलों की महफिलें, रात को देर – देर तक जाग कर फिल्मों की बातें होती थीं। क्योंकि उस जमाने में फिल्मी हीरो- हीरोइनों का युग था ! बिनाका गीतमाला और विविध भारती के गानों की तूती बोलती थी। एक दूसरे को कुछ कहना हो या दर्दे दिल का इज़हार करना हो तो फिल्मी गीत गुनगुना कर कहा जाता था। उस पर से आग में घी का काम करते थे गुलशन नंदा के उपन्यास!
अमिता अज्ञेय के उपन्यास ” नदी के द्वीप” के बारे में बोली तो भारती ने उससे साहित्य की चर्चा में प्रतिभागिता करी थी जिससे अम्मू को वहां का परिवेश भा रहा था। और इन्हीं दिनों यह प्यार की बेल परवान चढ़ रही थी। केवल मूक नज़रों का आदान-प्रदान ही चलता था उन दिनों। किताबों में गुलाब के फूल सुखाए जाते थे उस जमाने में।
विछोह की बेला में दहकते हुए गुलमोहर और अमलतास के फूल इस भयंकर धूप में अपनी ताजगी बिखेरते हुए भी उसे गीलेपन का आभास दे रहे थे । उधर उसकी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति मां की अनुभव पगी दृष्टि को शायद कुछ सोचने को विवश कर रही थी । क्योंकि अमिता के स्वभाव में चारों ओर खिली खुशबुओं का कोलाहल, कोयल के कंठ की कूक और चिड़ियों की तरह फुदकती धूप अब मद्धम पड़ गई थी। उसकी चढ़ती उम्र की आहटें मां तक पहुंच पा रही थीं। उनका ख्याल विश्वास में पनप रहा था यह देखकर कि किसी ना किसी बहाने से गौतम उनके घर हफ्ते दो हफ्ते बाद आ धमकता था।
चूंकि गौतम अपनी बातों से सबका मन मोह लेता था तो अमिता की छोटी बहन बावा भी उसके आने से खिल उठती थी और उसके पहुंचते ही झट अपनी दीदी के चेहरे पर खिली आभा को भी ताड़ लेती थी —उसकी आंखों में झांक कर। गौतम का बार-बार अमिता की आंखों की डोर से बंध खिंचे चले आना और खुली आंखों से अमिता की छवि को निहारना बहुत कुछ कह जाता था और जिसे सब नोटिस कर रहे थे।
दोनों की पढ़ाई चल रही थी। शनै: शनै: वक्त अपनी रफ्तार पकड़ रहा था और दोनों घरों में काना-फूसियां चल रही थीं उनको लेकर। अमिता की ग्रेजुएशन हुई तो गौतम भी आई.ए.एस की परीक्षा में बैठा। अब इसे इश्क की बेइंतहाई ही कहेंगे ना कि वह एक पेपर पर केवल उसका नाम ही लिखता रह गया …. गौतम को उसके सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। जब उसे होश आया तो तीर कमान से निकल चुका था। और सिर धुनने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचा था। वापिस आकर उसने अमिता को सारी सच्चाई बता दी जिसे सुनकर भविष्य में होने वाले उसके निष्कर्ष से वो तड़प उठी थी। उन दिनों छब्बीस वर्ष की आयु तक ही लिमिट थी इस परीक्षा के लिए और वह अब खत्म हो गई थी उसके लिए।
ख़ैर, दोनों की चाहत रंग लाई क्योंकि असलियत से कोई वाकिफ नहीं था। उनका संबंध सात फेरों में परिणित हो कर रहा। वह तो गौतम की प्रेम धारा से ओतप्रोत थी। उसकी कल्पनाएं भविष्य के आसमां पर पहुंच नृत्य करने लग गईं थीं और आकाश से उतरी ज्योत्सना में वह अंतर्मन से भीग-भीग जा रही थी।
डोली विदा हुई तो मायके के छूटने का दर्द तो था ही लेकिन प्रीतम के गले का हार बनने की रुमक उसे सहज कर रही थी। सुहाग की सेज पर वह सजी-धजी गठरी बनी बैठी रही । रात गुजर रही थी, कहीं कोई आहट नहीं थी । चिर-प्रतीक्षित रात्रि में उसका प्रियतम गौतम न जाने कहां था? प्रतीक्षा —एक लंबी प्रतीक्षा —सारी रात की प्रतीक्षा सुरसा के मुख सी रात को निगल रही थी !!! जब उसे हल्की सी चिड़ियों की चहक सुनाई दी, तो वह हैरान-परेशान कि रात बीत गई थी— क्योंकि वह चैन से बैठ ही नहीं पा रही थी ! कभी सोई , कभी जागी, कभी द्वार तक जाकर लौट आती रही। शगनों वाली रात में वह आंसुओं को आने से रोक रही थी पर मुई आंखें उसकी कहां सुन रहीं थीं? वह तो दिल के टूटे जाने पर बरस जाने को अकुला रहीं थीं। बरस बरस कर उसे भिगो रही थीं। सारा साज-सिंगार भी थक- हार कर मुर्झा गया था।
अचानक दरवाजा खुला और गौतम उसके सामने आ गया और बोला,”सॉरी यार, दोस्तों ने बहुत पिला दी थी मैं वहीं पड़ा रह गया था।”
इतना कहकर वह बाथरूम की ओर चला गया। उसने उसे छूकर आलिंगनबद्ध तो क्या करना था, उसने तो उसे नजर भर के देखा तक नहीं और ना ही उसके मचलते अरमानों की सजी हुई अर्थी को कंधा देने की सोची। यह सब देख, अमिता के काटो तो खून नहीं।
अमिता के जीवन का कठोर सत्य उसके समक्ष था अब। संपूर्ण वातावरण और परिवेश जैसे किसी अवांछित रहस्य के रोमांच से भरा था । अपने श्रृंगार को वह स्वयं उतार रही थी, उसकी उंगलियां कांप- कांप जा रही थी इस बोझ को उतारने में —-जिस पर गौतम का नाम लिखा था। थोड़ी देर में गौतम बाथरूम से बाहर आया और उसे उसकी मम्मी के घर जाने के लिए तैयार होने को कहकर उल्टे पांव लौट गया था।
उसे तब चक्कर आ रहे थे और वह बड़ी मुश्किल से तैयार हो रही थी कि तभी भारती आई और उसे बड़े स्नेह और प्यार से अपने साथ परिवार के बीच ले गई थी। मानो वहां पर किसी को कुछ मालूम ही नहीं था कि रात को क्या हुआ। बाहर, परिवार में सब कुछ सहज था। सभी लोगों ने स्नेहसिक्त स्वागत करते हुए उसे आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात उन्हें मम्मी के घर रिवाज के मुताबिक भेजा।
अमिता ने मुखौटा ओढ़ लिया था, सहज और प्रसन्न दिखने का। सहेलियां और भाभियां चुहलबाज़ी कर रही थीं और वह धीमे-धीमे मुस्कुराकर शर्माने की एक्टिंग कर रही थी।
आज शाम की ट्रेन से ये लोग वापस घर जा रहे थे। क्योंकि उनके मेहमान वहीं से वापस चले गए थे। अब असली विदाई हो रही थी। अमिता ने चुप्पी साध ली थी लेकिन घटनाक्रम असहज और असह्य थे क्योंकि रात भर सुधिया उसे कहां चैन लेने दे रही थीं ? उनमें बाहर आने की होड़ लग गई थी। ढेरों मृदुल स्मृतियों में वह अटकी हुई थी— जिनके वशीभूत होकर यह निर्णय लिया गया था गौतम के संग जन्म जन्मांतर के बंधन बांधने का और अब उस पर गाज गिर गई थी।
एक रात में ही वह मुरझा गई थी और शिथिल, लाचार, बेबस हो गई थी । गौतम की आंखों की कशिश मृतप्राय हो चुकी थी उसके लिए। उसे समझ नहीं आ रही थी कि वह किस से पूछे और क्या पूछे!!!
अमिता को लगा वह अपने घर पहुंच कर शायद नॉर्मल हो जाएगा लेकिन वह उसके सामने आने से भी कतराता रहा। कुछ तो बात है जो उसकी चाहत मर गई है! चार दिनों बाद दोपहर को वह बंगले के पीछे की ओर पेड़ों के झुरमुट में जाकर बैठ गई थी एक किताब लेकर कि तभी गौतम भी उधर आया और उसके पास कुर्सी लेकर बैठ गया था। उसकी ओर देखते हुए बोला था ,”क्या तुम मुझसे कुछ पूछोगी नहीं?
उसे अभी भी याद है कि उसका मन चाहा था कि वह उसका मुंह नोच ले और उसकी छाती पर जोर-जोर से मुक्के मारे! लेकिन वह संयत रही। उसने मौन रहकर केवल अपनी प्रश्नोभरी दृष्टि उस पर टिका दी थी। अपने धैर्य की पराकाष्ठा पर वह स्वयं हैरान थी।
उसे लगा उसका तालु जुबान से चिपक गया है, वह बोल ही नहीं पाएगी।
उस दिन गौतम ने कन्फेशन किया (मालूम नहीं उसमें कितनी सच्चाई थी)—-
“विवाह के पूर्व मैं तुमसे कुछ बताना चाहता था लेकिन मां ने अपनी सौगंध देकर, मुझे रोक लिया था। मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहता था। मैं समझ रहा हूं तुम कांटों पर चल रही हो। असल में,
मेरे जीवन में एक हादसा हो चुका है। मुझे किसी के साथ गंधर्व विवाह करना पड़ा था किसी मजबूरी में। तुम्हें मैं अब छूना भी पाप समझता हूं । मैंने मां और बाबूजी को बोला था , लेकिन वह माने नहीं । उनकी और तुम्हारे बाबूजी की इज्जत का वास्ता देकर उन्होंने यह विवाह करवा दिया । मैं लज्जित हूं तुम्हारे समक्ष ! ‌तुम जो चाहे मुझे सजा दे दो । वैसे मेरा रिजल्ट भी आ गया है मैं अनुत्तीर्ण हो गया हूं । यह आखिरी चांस था मेरा । अब मैं कुछ भी बन नहीं पाऊंगा। तुम्हें मैं जीवन में निराशा के अलावा कुछ भी नहीं दे पाऊंगा। अब तुम बताओ क्या करना है?”
यह सब सुनते- सुनते अमिता की आंखों से आंसूओं की झड़ी चेहरा भिगोते हुए ब्लाउज भी भिगो रही थी। वह इतने बड़े सदमे से ठंडी होती जा रही थी। नतीजन, वहीं बेसुध होकर गिर पड़ी थी कुर्सी से नीचे।
बेहोशी की हालत में उसे गोदी में उठाकर गौतम भीतर कमरे में पिछले द्वार से ले गया था और पलंग पर लिटा कर उसके मुंह पर छींटे मारे फिर न जाने कहां चला गया था।
घर में किसी को कानों कान खबर नहीं लगी थी कि घर के पिछवाड़े किसी का संसार लुट रहा था क्योंकि कई बार चोटों की मार से उभर आए जख्मों के जवाब में एक रिक्तता होती है जिसे भरना असह्य होता है चोट खाने वाले के लिए । उसकी अनुभूतियां चोटिल होकर भी अभिव्यक्त नहीं हो पाती हैं। आशाएं , उमंगे धराशायी होने पर बर्दाश्त भी हार जाती है एक बिंदु पर आकर । वे खंड- खंड बिखर कर अखंड रूप धारण कर लेती हैं और बोझ लाद देती हैं मनो: मस्तिष्क ही नहीं —-संपूर्ण जीवन पर।
अमिता को यहां पर इन ग्रंथियों का उभरकर गौतम के व्यक्तित्व पर छा जाना परिलक्षित हो रहा था गंधर्व विवाह की बात या बहाना उसके गले नहीं उतर रहा था या फिर वह शारीरिक रूप से अयोग्य था विवाह के!
यह सब कन्फेशन सुनकर भी वह उस पर विश्वास नहीं कर पा रही थी । उसे गौतम के प्रेम पर पूर्णतया विश्वास था। सोचने लगी थी कि गौतम उसे इस हद तक प्रेम करता है कि उसे जीवन के समस्त सुख देना चाहता है और परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर उसका मन टूट गया है कि वह ऑफिसर नहीं बन पाएगा इसलिए उससे दूर हो रहा है। उसमें इंफेरियारिटी कंपलेक्स हावी हो गया है जिससे उसके मन की ऊर्जा शक्ति निढाल हो गई है।
नपुंसकता—भी बहुत बड़ा कारण हो सकता है। यह तो उसे बाद में ख्याल आया था जब इसी दम पर उसे गौतम से बाबू जी ने छुटकारा दिलाया था। अमिता ने एकदम चुप्पी साध ली थी । कोई गिला, कोई शिकवा नहीं किया कभी किसी से और जब भैया मायके के लिए लिवाने आया था तो वह आत्मविश्वास से भर कर एक दृढ़ निश्चय लेकर उस घर को सदा के लिए त्यागने का निर्णय लेकर वहां से चल पड़ी थी। गौतम को सजा तो उसने क्या देनी थी । तभी से वह स्टेशन पर गौतम की धूमिल छवि को नकारने की यादों से—- यादों की सुरंग में उतर रही थी। और उसके हाथ उन सुधियों से लिपटे पन्नों के चिथड़े-चिथड़े कर रहे थे।

उसने अपने आप को मज़ाक नहीं बनने दिया था। उसने हौसलों से वक्त का मुकाबला किया था। बीती उम्र की आहटें उसके जीवन की गतिविधियों में अवरोध नहीं बन पाई थीं। उसका आत्मविश्वास उसका संबल बना रहा था ताउम्र । क्योंकि उसने अपनी हथेली पर सूरज उगा लिया था!!!

  • वीणा विज’उदित’
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