सतरंगी धूप
निकल पड़े थे कदम ढूँढने मंज़िल
आलम्बन ले कर नई राहों का
ठहरी थीं राहें वहीं की वहीं खड़ी
तन में थी सिहरन पग कम्पित !
बढ़ा अंधकार फैला बांहें सस्मित
कब रुका है कारवाँ जो अब रुकेगा
हर मोड़ पर थे निश्चिंत समझ ठौर
लेकिन दूर-दूर तक नहीं दिखी मंज़िल!
बार-बार रह जाती पगतली राह की
बढ़कर सिकता छूने में असमर्थ
कभी जुगनू होते गौरवान्वित नैनों में
कभी अथाह सागर छलक जाता !
कभी शापित अहिल्या शिला टकराती
कभी शबरी के बेरों का ढेर दृष्टाता
तमन्नाओं की पगडंडियां थीं बिखरी
कच्चे घड़े संग चिनाब में डूबना न था!
पथिक!किन ख़्वाबों को संजो चले हो
मंज़िल का निशां तभी तो पाओगे
सागर की लहरों को लांघ जब सकोगे
दृढ़-संकल्प हो सतरंगी धूप तब पाओगे।।
वीणा विज उदित
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