शब्दिकाएँ (२भाग)

१…
धूसर धूमिल धरा हुई
धुँधला नील गगन हुआ
कैसे टेरूं पी की गलियांं
अँधियारे में बूझूं
कैसे मन का ताप
धुँधलाहट में
सूझे न कोई राह !
*
२…
नि:शब्द सन्नाटे में
मौन मुखर हो उठता है
होंठ वरते हैं नीरवता
आँखे ज़ुबान बन बतियाती हैं।।
*
३…
इक ख़्याल
दिल लगाने को
महफिलों का रुख़
कर लिया था मैंने
फिर क्यूं
इस भरी बज़्म का शोर
मुझे तन्हा कर गया !
*
४…
धुएँ की आकृतियां
बनती खो जातीं
उनकी नियति है
हवा संग अनवरत बहना!
*
५…
बढ़ता रहा
भीड़ का कारवाँ
ज़िंदगी खटखटाती रही द्वार
अँधी हो गई
बहरी तो थी ही भीड़ ।
*
६…
मुखौटे ओढ़
प्रसन्न वदन
सुनते ही सच
रंग बदरंग गहन !
*
७…
नफरत और
उदासीनता का
संत्रास झेलना
अति पीड़ादायी
जाने कोई भुक्तभोगी ही !
*
८…
इक अश्क बेज़ार हो
आँख से ढुलका
दूजा पलकन की ओट में
अटका किया
शिद्दत थी दर्द की
इस कदर कम्बख़्त
आँख की किरकिरी
बना रह गया ।
*
९…
वक़्त के अजब हैं पैमाने
लम्हों की अलग हैं गुज़ारिशें
ज़िंदगी ने वक़्त ही कहाँ दिया
बामुसलसल बढ़ रही हैं ख़्वाहिशें ।
*
१०…
कभी बहकी थी नज़र
कभी सिसका था इक आँसू
हादसों का आलम चलता रहा
ताक़ीद करता रहा ज़हन
हम बदगुमानी में मासूम बन
तकते रहे कारगुज़ारी निगाहों की ।
*
११…
बेवफाई की इंतिहा
की है नींद ने
खुद सोती है
बिस्तर पे मेरे
हम उसकी राह तकते
जगते रहते हैं रात भर ।।
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वीणा विज ‘उदित’

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