मैगनोलिया जैसी खिली (कहानी)

मैग्नोलिया जैसी खिली (कहानी)

मैग्नोलिया जैसी खिली

जाड़ों में जब वृक्ष एकदम रूखे और नंगे हो जाते हैं यहां तक कि उनकी चमड़ी भी उधड़ने लगती है, तब झील की ओर से ठंडी तेज हवा वैसे ही हाहाकार करती हुई उठती है जैसे बर्फ से जमी हुई ठोस झील से आती हवाएं! मेरा अकेलापन मुझे कुछ यूं ही कचोटने लग जाता है और बांसों के जंगल की चुभीली पत्तियों सी चुभन तन बदन में चुभने लग जाती है। केवल अकेलापन, नितांत अकेलापन!
वृक्षों की उधड़ती चमड़ी पर नज़र टिकी थी कि तभी लगा पीठ पर एक छोटा सा बालक मुझ से लिपटा है जिसकी नन्ही- नन्ही बाहें मेरे गले के इर्द-गिर्द हैं।” मामा उठो ना, मुझे भूखू लगी है।बोनोइता (बॉर्नविटा) वाला दूधू दे दो।”
झट से उठने का उपक्रम करती हूं मैं! बेटू की बांहें पीछे करती हुई, तो वहां कुछ भी नहीं—–मेरे हाथ खाली फिसल जाते हैं। वह केवल एक ख्याल था! अतीत की गलियों में भटकता हुआ कहीं सताने आ गया था। मैं वृक्ष से लिपटी लता के टूट के गिरने सी मुर्झाने लगती हूं कि …
तभी कानों में शरद की पुकार सुनाई देती है कि भई बच्चों से फुर्सत मिले तो मुझे भी एक कप चाय का पिला दो। सिर को झटक कर वर्तमान में लौटती हूं और जल्दी से चाय का पानी चढ़ा कर प्लेट में दो रस्क रखती हूं क्योंकि इनको खाली चाय पीना पसंद नहीं। ट्रे में दो कप चाय और रस्क की प्लेट रखकर बाहर बालकनी में टेबल पर रखती हूं। और अखबार उठा कर देखने का उपक्रम करते हुए शरद को आवाज़ लगाती हूं।
“अब आ भी जाओ ना यार, चाय ठंडी हो रही है। कहीं बाथरूम तो नहीं चले गए हो?”
अखबार वहीं पटक कर खिझी हुई भीतर जाती हूं और देखती हूं कि पलंग पर केवल एक ही लिहाफ पड़ा है। जिसे देखकर दिमाग में टन न न न एक घंटी बजती है—अचेतन मन से चेतन में लौटती हूं। और दरवाजे की चौखट को पकड़कर वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगती हूं जोर- जोर से। कहां है शरद? मैं तो अकेली हूं। मैं जोर-जोर से उस अदृश्य आत्मा से बोलने लगती हूं,
“तुम भी मुझे छोड़ कर चले गए। कुछ ना सोचा कि मैं कैसे रहूंगी ? किसके सहारे जीवन काटूंगी ??”
मैं किसको सुना रही हूं? मेरा जोर- जोर का रोना कौन सुन रहा है? मैं परिस्थिति की यथार्थता को भांप कर अचानक स्वयं ही चुप कर जाती हूं।
दूsssर तक नजर जाती है तो काले कुरूप पेड़ों के झुरमुट में वर्षा से भीग-भीग कर काले हो गए पेड़ों के तने नींव से उखड़ कर, उन्हीं सूखे पेड़ों में औंधे गिरे पड़े ,शरण मांगते दिखते हैं। बेचारगी… इस बार की पतझड़ ने उन्हें मार ही डाला है। गुल्म तरु के आस की किरणें तब भी बुझती नहीं है क्योंकि उन सब की दृष्टि सदाबहार”ओक, मैग्नोलिया,चीड़, देवदार”जैसे वृक्षों से पुन: जी उठने की उमंग धारण करती रहती हैं। तभी तो वे उसी हाल में अपने आप को स्वीकार कर लेने की शांति और सहजता से खड़े रहते हैं। उन्हें विश्वास है भविष्य के जल भरे मेघों , सुगंधित पवन और अपनी मिट्टी पर —जो अभी शिशिर से प्रताड़ित है और मलय पवन की राह देख रही है, वसंत ऋतु के आगमन पर दृष्टि जमाए । इसी तरह शायद उनका आस का दीपक जल उठता है। मेरी दृष्टि भी तो कमरे की खिड़की से दिखाई देते मग्नोलिया पर जाकर ठहर जाती है …
लेकिन, यहां नजदीक तो क्या दूर भविष्य में भी
किसी तरह का कोई आस का दीप नहीं दिखाई दे रहा है। बेटी अपनी दोनों बेटियों का भविष्य बनाने में व्यस्त है लंदन में और बेटा भारतीय सेना में ई एम ई में मेजर है। उसकी पोस्टिंग होती रहती है। सास मॉडर्न है फिर भी उसके आ जाने से बहू को बंदिश लगती है। वह क्लबों में खुले आम व्हिस्की नहीं पी पाती और लोअर नेक नहीं पहन पाती। उसकी आजादी में खलल पड़ता है। ऐसी बातें बेटे ने दबी जुबान से मां के साथ कीं, तो रूपा ने ठान लिया कि वह अब उनके पास नहीं जाएगी। उसने उनके पास जाने के लिए अपनी डायरी में से उनका पृष्ठ ही फाड़ दिया था। हां, बेटे का फोन फिर भी आता रहता है कुशल-क्षेम पूछने के लिए।
‌शरद सारी उम्र बाहर देशों में पैसा कमाने की खातिर ऑयल और गैस कंपनी के ठेके लेता रहता था,जबकि मैं बच्चों को लेकर उसके पास छुट्टियों में जाने को सदैव उतावली रहती। बाकी समय बच्चों की पढ़ाई के कारण दिल्ली में रहती थी। इकलौती औलाद होने के कारण मेरी मम्मी की जब अचानक सोए- सोए मृत्यु हो गई तो मैं अपने पापा को अपने घर ले आई थी। उनकी तीमारदारी के लिए किसी एनजीओ से एक लड़की भी घर में आ गई थी। जिम्मेदारियों में मैं ऐसी घिर गई थी कि मुझे पता ही नहीं लगा कब बच्चों की पढ़ाई भी खत्म हो गई और एक दिन मेरे पापा भी हमें छोड़ गए।
अब बच्चों की शादी के समय शरद ने दिल्ली में कभी खरीद के रख छोड़ी ज़मीन पर एक शानदार घर बनाया और अपने सारे अरमान पूरे किए । उसे क्या मालूम था कि वह इस संसार से इतनी जल्दी रुखसती पा लेगा! बस दो दिन का बुखार और हॉस्पिटल एडमिट हुआ। न जाने किस मुहूर्त में वह घर से निकला था कि उसका नाम ही खत्म हो गया। वहीं अस्पताल के रजिस्टर तक रह गया और वह एक डैड बॉडी बन के घर लाया गया। बच्चों ने इस सत्य को भी स्वीकार कर लिया था कि उनके पापा भी नानू की तरह उनको छोड़ गए हैं, और अपनी- अपनी गृहस्थी में जाकर रम गए थे। जब फूल डाल से झड़ जाता है तो कलियां फूलों का स्थान लेने लगती है। यही तो प्रकृति का नियम है। लेकिन पीछे तड़पने और रोने को, शरद की यादों में लिपटी रह गई केवल उसकी रूपा! “मैं “!!
ऊपर का पोर्शन किराए पर दे कर सोचा गुज़ारे के लिए काफी है किराया। कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं की पेंशन आने की आस होती, बस जो कुछ था, यही कुछ था। हां, हेमंत ने औपचारिकता निभाते हुए एक बार पूछा अवश्य था,
“ममी, आप को हर महीने कितने पैसे भेज दिया करूं?”
मैंने मना कर दिया था। और वह भी मान गया था। अपने बड़े बुजुर्गों को जैसे पहले परिवार में देखा करते थे हम, मैंने भी अपने आप को भक्ति में लगाने का यत्न किया। क्या करूं पूजा- पाठ में मन नहीं रमता था। एक सहेली ने मेडिटेशन भी सिखाने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं सीख पाई। मेरा ध्यान भटक जाता था।
हम दोनों मियां बीवी तो अब जगह-जगह घूमने के प्रोग्राम बना रहे थे। बच्चों की जिम्मेवारी से फारिग जो हो गए थे, अब मौज मस्ती के दिन आने थे! वही ख्याल दिमाग में घूमता रहता था। कहते हैं ना “बिना भाग्य के कुछ नहीं मिलता”, नसीब में बिरहा का रोग जो लिखा लाई थी। वही भुगतना था अब।
मेरी एक पुरानी सहेली कम्मी मुझे मिलने आई और उसने बताया कि वह दुबई अपनी बहन के पास जा रही है क्यों नहीं वह भी उसके साथ चलती दोनों घूम फिर आएंगी।
“रूपा जगह बदलने से तेरा ध्यान भी बदलेगा और मन भी लग जाएगा क्या बिरहन सी बैठी रहती है?”
यह सखी सहेलियां ही होती हैं जो दर्द को कम कर देती हैं सो, वो तो मेरे पीछे ही पड़ गई। उसके बहुत पीछे पड़ने पर मैंने प्रोग्राम बना लिया और अपनी बहन रीता दी को फोन कर दिया। सिया को भी अमेरिका बताया तो वह बेहद खुश हुई कि मां अवश्य जाओ शायद आपका मन बहल जाए।
हमारा पांच दिन का प्रोग्राम था। शारजाह अंतरराष्ट्रीय विमान स्थल बेहद ही सुंदर है। दुबई की इमारतें और समुद्र में गगनचुंबी इमारतों का जमघट ऐसा कि देखते हुए आंखें भी चुंधिया जाएं। सोने के जेवरात की पूरी मार्केट ! चम- चम चमक रही थी मेरे सामने पर अब मेरे किस काम की थी? मेरे साथ शरद होते तो जरूर शॉपिंग होती! अब कोई कपड़े और जेवरात मुझे नहीं भाते हैं। ख़ैर, यह सब तो था लेकिन कम्मी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थी, फिर भी मेरे मन में घटाएं घिर आती थीं और बरस कर रीत कर ही लौटती थीं। कोई भी चोट जब लगती है तो बहुत तकलीफ देती है, मेरी चोट भी तो अभी नई है। रात भर मेरी बाहें शरद को ढूंढती है और मेरा सिर शरद की बांह को ढूंढता है! उसे क्या मालूम कि वो दिल्ली में है कि दुबई में! उसे तो शरद की बांह की तलाश होती है।
वापिस आई तो रीता दी का पानीपत से फोन आया कि अगले हफ्ते हम लोग शिरडी साईं बाबा के दर्शन के लिए चल रहे हैं तुम्हारी टिकट करा ली है अपने साथ। लो जी, पैर में फिर चक्कर था। रीता दीदी और जीजाजी दो दिन पहले ही आ गए थे। घर में रौनक आ गई थी। घर की चहल-पहल में मैं अपना अकेलापन भूल गई थी और उनके साथ हंस रही थी। सोचा यही जादू है परिवार का जो एकल परिवार में नहीं है। मानो मुझ में जान आ गई है। घर में खाना भी बन रहा है और मुझे भूख भी लग आई है। ऐसा लगा मुद्दत बाद खाना खा रही हूं। नियत समय पर हम शिर्डी गए और अगले दिन वापस आ गए दर्शन करके। मन में भक्ति की जगह घूमने का ध्यान रहा —तो शायद ऐसे दर्शन निरर्थक रहे। जो भी रहा हो, मेरा मन कहीं नहीं लग रहा था।
वक्त तो अपनी चाल से गुजर रहा था! अब यह मुझ पर था कि मैं अपने को कैसे संभालूं? बुक शॉप पर जाकर कुछ किताबें उठा लाई मैं एक दिन। अपने पलंग के सिरहाने उन्हें सजा लिया। सिडनी शेल्डन का उपन्यास ” इफ टुमौरो कम्स ” के कुछ पन्ने पढ़कर रात को रख दिया और अपने जीवन से उसका मिलान करने लग गई। आधी रात यूं ही सोच में बीत गई। दूसरे दिन सुबह दस बजे आंख खुली। मेरी एनजीओ वाली नौकरानी की शादी हो गई थी तो अब कामवाली बाई 11:00 बजे आती है सो मैं आराम से सो सकी। मेरे घर कोई नहीं आता सुबह सवेरे! नाही किसी ने कहीं जाना होता है! है ही कौन?
“साफ चकाचक घर है बीबी तुम्हारा ,क्या साफ को और साफ करूं?”कहते हुए बाई सफाइयां कर रही थी ग्रेनाईट के फर्श की। मैं तैयार होकर अपना मूड बदलने के लिए कहीं बाहर जाने की सोच रही थी। बाई जैसे ही गई, मैं भी घर बंद करके कार स्टार्ट करके नीता के घर की ओर चल पड़ी। बिना फोन किए वहां पहुंची तो वह हैरान हो गई। (शुक्र है वह घर पर थी) मैंने पहले चाय और नाश्ता उससे मांग कर खाया पिया फिर उससे बातें करने बैठ गई।
बातों बातों में उसने बताया कि वह एक एनजीओ से जुड़ी है जहां अनाथ और गरीब बच्चे होते हैं। जिनको कुछ सिखाना होता है। लेकिन किस तरह–?
उनके लिए सामान भी इकट्ठा करना होता है इसके लिए किसी मंदिर या किसी स्कूल में आम घरों से सामान मंगवाया जाता है जो उनके काम का नहीं होता। लोग बहुत प्रसन्न होकर अपने घर का फालतू सामान कपड़ा, किताबें, खिलौने, वुलेन आदि दे जाते हैं ।बस इसी सामान से अनाथ आश्रम में रहते इन बच्चों से कुछ नई चीजें बनवाई जाती हैं। यह तैयार किया सामान फिर बेचा जाता है, कभी किसी प्रदर्शनी में या किसी मेले में। इससे बच्चों में आत्मविश्वास की बढ़ोतरी होती है और वह कोई स्किल या गुण भी सीखते हैं। जो आगे चलकर उनके जीवन यापन में काम आता है।
जो पत्रिकाएं और किताबें लोग दान में देते हैं वह इन बच्चों के मानसिक ज्ञान को बढ़ाने में सहायक होती हैं। इन्हीं बच्चों में कई कवि और लेखक भी निकलते हैं और किसी कॉलेज के शिक्षक और प्रिंसिपल भी बनते हैं। इन्हें शिक्षा भी दी जाती है।
इतनी सारी बातें सुनकर मेरा मन नीता के प्रति आदर से भर गया। सोचा, यह तो ईश्वर की मर्जी है कि मैं आज सीधे नीता के घर अपने आप पहुंच गई। ईश्वर ने मेरे लिए यही इशारा किया लगता है। मेरी आस का दीप , मेरे एकाकीपन, मेरे अकेलेपन को दूर करने का यही एक उपाय मुझे सुझाई दे रहा है। मैंने नीता के दोनों हाथ पकड़ लिए और उसे कहा कि कल से मैं भी उसके साथ उस एनजीओ में चला करूंगी और उन बच्चों के साथ समय बिताया करूंगी। जितना मुझसे हो सकेगा मैं मदद करूंगी।
भला नीता को इसमें क्या एतराज था बोली जरूर चलना।
सांझ ढले मैं उत्साह से भरी हुई घर आई। मैंने आकर अपने घर का सारा फालतू सामान जो अब मुझे नहीं चाहिए था और शरद की अलमारी से उसके कपड़े वगैरह कुछ चादरें निकालकर उनमें बांधे। उनकी पोटलियां बना लीं जो मैंने सुबह नीता के साथ उस एनजीओ में लेकर जानी थीं। बहुत बड़ा काम हो रहा था यह, जिसे मैंने अभी तक छूने की हिम्मत भी नहीं की थी क्योंकि मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं उनका क्या करूं? अब एक राह सामने दिखाई दे रही थी। तो सब कुछ सहज भाव से हो रहा था। इस सब से फ्री होकर मैंने दूध का एक गिलास पिया और खूब थकी हुई बिस्तर पर लेटते ही सो गई कल के इंतजार में!
अगले दिन नीता के साथ मैं एनजीओ में पहुंची। वहां छोटे- बड़े सभी बच्चे थे । वह मुंह उठाए दरवाजे की ओर ही देख रहे थे। नीता ने जैसे उन्हें प्यार किया मैंने भी एक बच्चे को प्यार किया तो उसने मेरा हाथ चूम लिया। इस पर भाव-विह्वल हो मैंने उसे गोदी में उठा लिया। मेरी आंखें अश्रुपूर्ण हो उठीं, और उनमें आस के दीप जल उठे।
सारी दोपहर उत्साह पूर्वक उनके साथ बीती। मैंने उनकी शिक्षा में आत्मनिर्भरता का गुण पनपते देखा।
मैं यह सब देख कर आत्म विभोर हो उठी थी। घर पहुंच कर मैंने सिया को फोन लगाया और उसे यह खबर दी। मेरा उत्साह देखकर सिया रोने लगी और प्यार से बोली, “मां आप मेरे पास आ जाओ और यहीं आकर रहो। मेरा ध्यान सारा समय आपकी ओर लगा रहता है। मैं और ऋषि दोनों ही आपकी चिंता करते रहते हैं।”
मेरा मन भी भर आया और उसे तसल्ली दी,” मैं जल्दी ही आने का प्रोग्राम बनाऊंगी ,पर कितने दिन? आखिर तो यहीं लौटना है ना! यदि तुम आ सको तो बहुत अच्छा लगेगा। अब तो बेटियां दोनों बड़ी हो गई हैं वह पापा का भी ध्यान रख सकतीं हैं।
अगले महीने तुम्हारे पापा का “वरीना “( बरसी) है तुम पहुंच जाना मैं डेट बता दूंगी।”
यह बेटियां क्यों इतनी नरम दिल होती हैं,मां-बाप के दुःख -दर्द में शामिल हो उनका ध्यान रखती हैं! सिया के रोने से मैं अंदर तक हिल गई थी, कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।
मैं एनजीओ में जाने लग गई थी, लेकिन मेरी सेहत गिरती जा रही थी और मुझे सारा समय थकान लगी रहती थी। खाने पीने के लिए भी पूछने वाला कोई नहीं था कि अचानक ऋषि का फोन आया कि सिया आपके पास आ रही है। और उसकी आर्टिनरी उसने मुझे भेज दी। मुझ में एकदम से जान आ गई आखिर मेरी बेटी मेरी जान आ रही थी मेरे पास। एयरपोर्ट पर उसे देखते ही मेरा माथा ठनका। इतने वर्षों बाद वह पुनः मां बन रही थी। उसे देख कर मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। घर पहुंच कर कुछ सेटल हो कर मैंने उससे आराम से पूछा ,”यह सब क्या है सिया?”
सिया ने मेरे दोनों कंधों को पकड़ा और अपना चेहरा मेरे चेहरे के पास लाकर मुझे ढेर सारे चुंबन दे डाले। जितना मुझे आलिंगन में ले सकती थी उतना लेकर बोली,
“मां यह सब तुम्हारे लिए है। जो भी होगा तुम्हारा होगा और तुम ही उसे पालोगी। मैं डिलीवरी करने तुम्हारे पास आई हूं, मेरे और ऋषि की ओर से तुम्हारे लिए सौगात लाई हूं।”
मैं अवाक उसका मुंह ताक रही थी। क्या कोई ऐसी भी बेटी होती है , जो इस हद तक सोच जाए! हक्की बक्की मैं उसकी बातें सुन रही थी।
“मां, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कब तुम सालों की दूरियां तय कर लोगी। तुम पतझड़ में नहीं रहोगी, तुम्हारी आस का दीप जलेगा। हां मां, मैगनोलिया की तरह तुम सदा खिली रहोगी।”

वीणा विज’उदित’
02/08/2022

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