भ्रूण हत्या का श्राप

  • भ्रूण हत्या का श्राप


    ऊंची अट्टालिकाएं

    गहरी सांसे लेती है सोई

    जो सजी-धजी हैं

    शहर की उस वीरान गली में

    जहां से बारात बारातें गईं और डोलिया ले आईं।

    कोई बारात ना आई,

    हंसी ठिठोली ना दी सुनाई

    घर हुए आलोकित

    वंश के कर्णधार जन्मे

    खुसरे नाचे , वंदनवार सजे,

    पीटे गए नगाड़े प्रतिस्पर्धा में

    अंतर तल पुकार ना सुनी किसी ने

    कन्या भ्रूण गिराए

    गुह्यतल में सोई आत्मा ने ।

    अब नन्हे पांवों की

    पैंजनिया की रुनझुन

    केवल सपनों की गलियां सुनाएं।

    वहीं—

    शहर की बाकी गलियों में

    अलगनी पे कपड़े डाले

    तिरछे नैनो से देखें

    दो सखियां

    धीमे-धीमे बतियांए,

    खिलखिलाएं !


    नहीं कुआंरी कोई शहर की

    उस वीरान गली में !

    फुकरों की गेड़ी ना थी

    सूना आंगन था गली का

    आंख सेंकने को

    नागफनी का फूल भी न था।

    शहर की बाकी गलियां

    लेती थीं सांसें

    मस्ती में जीती थीं

    श्राप था भ्रूण हत्या का

    शहर की उस वीरान गली को !


    डॉ.वीणा विज उदित

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