बिट्टी…

कुण्ठित समाज के नागपाश से ग्रसित नारी की हृदयग्राही कथा….

” बिट्टी ”
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अरे ओ बिट्टी, कहां दौड़ाए लिए जा रही हो हमें? कहते हुए बाला ने तनिक रुक कर सांस लिया और बिट्टी का हाथ छोड़ सामने फैली हरियाली को आंखों में भरा। दूर-दूर तक फैले खेतों की मुंडेरों पर वे दोनों दौड़-दौड़कर हांफने लगी थीं। बाला ने देखा कि सामने लंबी-लंबी लाइनों में तरह-तरह की सब्जियां लगी थीं। बिट्टी ने आगे बढ़कर जमीन के भीतर से पत्ते खींचकर कुछ मूलियां निकालीं।और बाला से पूछने लगी,
“तुम मिट्टी से भरी मूलियां, गाजर पकड़ोगी?”
बाला ने” हां” कहकर झट से उन्हें पकड़ लिया। और कौतूहलता भरी खुशी से बोली,” अरे वाह ! हमारे शहर में तो सब्जीवाली बाई सिर पर टोकरा उठाए सब्जी बेचने हर दिन आती है और हमारे बाबूजी तो बेहद चाव से सब्जी -भाजी, तरकारी अपने हाथ से चुन-चुन कर लेते हैं। और यहां….हम अपने हाथों से मूली, गाजर, हरे प्याज खेत में से निकाल रहे हैं। जिसमें मिट्टी की महक व्याप्त है। बिट्टी, मैं तो धरती मां के खजाने को देखकर हैरान हूं।”
कुछ कदम आगे जाने पर पानी का पंप था। वहां बिट्टी ने आदतन अच्छे से इन सब को धोया और मिट्टी साफ करी। बाला ने भी रहट सिंचाई का ढंग देखा —बड़े-बड़े बाल्टी नुमा टीन के डब्बे गोल- गोल घूमते चक्के पर लगे थे और खेतों को पानी दे रहे थे। यह सब देख कर वह आनंदित व आश्चर्यचकित थी।
बाला अपने बाबूजी के साथ पंजाब-हरियाणा आई थी रतनगढ़ में, जहां बाबूजी के ताऊजी का परिवार रहता था। बरसों बीत गए थे , विभाजन के बाद उन्हें एक-दूसरे से अलग हुए। कभी-कभी पोस्ट कार्ड में कुशल-क्षेम पूछते- पूछते उनका बचपन का प्यार उमड़ पड़ा था और बाला के बाबूजी को अपने सगों और गांव की अपनी पुरानी जीवन-शैली की इतनी याद आई कि वे अपने सगे संबंधियों को मिलने बाला को साथ लेकर ट्रेन से चल पड़े थे।
बिट्टी और बाला हम उम्र थीं। बिट्टी ने आते ही बाला का हाथ पकड़ा और संग ले गई थी। बीती रात बारिश होकर हटी थी , निरभ्र आकाश की खिली धूप में दूर तक फैली खेतों और खलिहानों की हरियाली नहाई हुई चमक रही थी । पौधों की पत्तियां धुलकर खिलखिला रही थीं और उन दोनों की हंसी में सम्मिलित हो रही थीं। बाला ने पत्तों वाली एक गाजर वहीं पंप पर धोकर , मुंह में किरच-किरच करके खाना आरंभ कर दी थी। इतनी मीठी गाजर- ! उसके मीठे स्वाद से उसका मन अल्हादित हो उठा था और उसको सारा खेत ही मिठास भरा लग रहा था। वह सोच रही थी कि वह लोग शहरों में विस्थापित होकर इन प्रकृति दत्त सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं और नैसर्गिक सौंदर्य का बोध ही नहीं कर पाते हैं। मोहल्लों में रहकर आसपास फैला कूड़ा -करकट ही देखते रहते हैं! एक दिन भी मेहतरानी आकर गली -कूचे ना बुहारे तो नथुनों से टकराती हवा गंदगी अपने संग बहा कर लाती है, एहसास कराने के लिए। जबकि यहां खुले आसमान के नीचे हरे -भरे खेत लहलहा रहे थे और शीतल मलय आकर चारों ओर से उसे घेरकर अपनी सोंधी सुगंध में नहला रही थी।
बाला ने देखा घर के सभी लोग अपने काम के लिए बिट्टी को बुलाते रहते और वह चतुर खिलाड़ी की तरह सब काम पलक झपकते कर देती थी। वह सबकी चहेती थी । हां, उसका पहनावा कुछ अलग था। वह बाला की तरह चुस्त और टाइट कपड़ों की जगह ,ढीली- ढाली सलवार कमीज पहनती थी। और ढोडी को चुन्नी में लपेटते हुए, सिर को ढंके रहती थी , मानो अरब देश की लड़की हो। लेकिन इस पहनावे में सबसे अलग हटकर, और प्यारी लगती थी। बाला को वह इतने अपनत्व से मिली थी मानो बहुत बरसों से उसे जानती हो।
बिट्टी सौंदर्य की प्रतिमा नहीं थी ,बल्कि सीधी-सादी साधारण गेहुआ रंग की एक सरल , निर्मल चित्त, अल्हड़ लड़की थी गांव की , जो सारा समय अपने चेहरे पर हंसी ओढ़े रहती थी, सबकी लाडली! बाला को उसका यही सीधा पन, चेहरे पर बिखरी मधुर हंसी भा रही थी। बड़े ताऊजी , बढ़िया पगड़ी बांधे हुए रोआबदार बुजुर्ग थे, जिनके चेहरे पर भतीजे के आने की खुशी की लाली दहक रही थी। बिट्टी उन्हीं की छोटी पोती थी। गांव के सरपंच होने के कारण उनके घर में जश्न जैसा माहौल था।
चार दिन वहां ठहरने के बाद इनका अगला पड़ाव सिढोरा था। जहां बाबूजी की जमीनें थीं जो पाकिस्तान से आए विस्थापितों को सरकार ने क्लेम में दी थीं और जिन्हें उनके कहने पर बड़े भाई संभाल रहे थे। साथ ही बहुत बढ़िया बेकरी भी चला रहे थे। छोटे भाई को देखकर उनके पांव भी जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। रिश्तों के मायने, अब बाला भी समझ पा रही थी कि बेशक दूरियां हो लेकिन यदि दिल करीब हैं तो दूरियां कुछ मायने नहीं रखती हैं। अपने फिर भी अपने ही होते हैं।
वहां से एक दिन के लिए यह लोग अंबालासिटी , बाला की दादी की पक्की सरदारनी सहेली और उनके परिवार को मिलने गए। दादी की वह “चुन्नी वट्ट”सहेली थीं। यानी दो सहेलियां जब आपस में चुन्नी (दुपट्टा )बदल लेती थीं तो वह आपस में पक्की सहेलियां बन जाती थीं। इन दोनों के वहां पहुंचने पर उन्होंने तो आसमान सिर पर उठा लिया था। माता जी और उनके तीनों बहू- बेटे, इनको घेरकर बैठ गए थे। उनके बारीक जज़्बातों ने कसीदे से सजे अल्फाजों के पैरहन पहने हुए थे। जिससे बाबूजी का इतनी दूर पंजाब आना उनके अतीत की यादों में उन्हें ले गया था । कहीं गहरे दिल में बसी कोई संवेदना उभर कर बाहर मुंह निकाल रही थी।
जीवन यथार्थ में जीने के अलावा और अधिक शिद्दत से कल्पना में उड़ान भरता है! लेकिन यहां बाबू स्मृति- पुंज से झांकती अपने बाल्यकाल की घटनाओं में खो गए थे । सुनाने लगे कि उनकी मां ने इनकी मां से चुन्नी(दुपट्टा) बदल ली थी दोनों एक जैसी डील-डौल की भी थीं। जब वह छोटे थे और बाहर से खेलते आए तो आकर मां के दुपट्टे में उनकी छाती में मुंह छुपाने लगे तो दोनों सहेलियां खिल-खिलाकर हंसी! इस पर बाल सुलभ उत्सुकता से उन्होंने दुपट्टे से मुंह निकाल कर बाहर देखा तो वह उनकी अम्मा नहीं थी । यह दुपट्टा बदलने का कमाल था। उस जमाने में औरतें दुपट्टे की बुक्कल मारती थीं अर्थात दुपट्टे से पीठ माथा और ऊपर का पूरा हिस्सा ढंक लेती थीं। वे हर लिहाज से जमीन से जुड़ी औरतें होती थीं। वैसे भी संयुक्त परिवार के कारण चूल्हे – चौके का काम करते हुए भी उनके चेहरे पर आधा घूंघट रहता था। बच्चे ही क्या, बड़े – बूढ़ों को भी उनके पहनावे याद हो जाते थे।
अपनों के समीप्य की मीठी अनुभूति से एक तृप्ति का अहसास संजो कर बाला और उसके बाबूजी ढेरों सौगातें लेकर घर वापस लौट आए थे । जिनमें अपनों के प्रेम की खुशबू थी। अपने खेत के गन्नों का मेवों से भरे गुड़ की पेसियों का पीपा( टिन) और एक पीपा ताऊ की बेकरी के बिस्कुटों का भरा हुआ था। उन दिनों सफर में सूटकेस नहीं होते थे। लोग टीन का ट्रंक सफर में ले जाते थे। अब पीपे भर कर खाने का सामान साथ आया था।
बाला की बुआ शहर में ही रहती थीं। बाबूजी और मां उन्हें मिलने और पंजाब की सौगात देने उनके घर गए तो वे भी बचपन की यादों से उद्वेलित हो, विस्मृत हो चुकी अतीत की गलियों में पुनः विचरण करने लग गई थीं। उनके तीन बेटे थे ।अब बीच वाले बेटे गोपी की विवाह योग्य आयु थी, तो उनके मन में एक इच्छा ने जन्म लिया कि क्यों ना बिट्टी को अपने घर की बहू बनाकर अपने रिश्तों को नया रूप प्रदान किया जाए !! जब उन्होंने भाई से विचार साझा किया, तो वह भी यह प्रस्तावना सुनकर प्रसन्न हो गए। उन्हें विश्वास था कि बिट्टी के घर में इस प्रस्तावना का स्वागत होगा! बाला को बुआ ने बुला भेजा कि उसे बिट्टी कैसी लगी? स्वभाविक था बाला ने उसकी बहुत प्रशंसा करी, वह नादान भाग्य की चपल चाल को कहां समझ पाई थी !!
आनन-फानन में गोपी और बिट्टी का ब्याह पक्का कर दिया गया। वहां किसी तरह की पूछताछ की कोई आवश्यकता किसी को महसूस नहीं हुई। वैसे भी उन दिनों परिवारों की तसल्ली बहुत बड़ी बात होती थी। फिर वह तो बाला की बुआ का अपना मायका परिवार था। विभाजन के पूर्व सब एक ही गांव में पास-पास रहते थे। अब जहां भाग्य ले आया था सब वहीं बस गए थे। दूर थे कहने को ,पर दिलों में दूरी नहीं आ पाई थी। पंजाब में कहते हैं” जिस जमीन को हमने लताड़ना है समय का घटना चक्र ऐसे ही घूमता है कि इंसान वही पहुंचता है ,उसी जमीन पर रहने” और फिर कहता है “जो करे करतार “अर्थात ईश्वर की यही मर्जी थी।
लो जी, आती अक्टूबर में बाला के फूफा जी नाते- रिश्तेदारों के साथ गोपी भैया की बारात लेकर रतनगढ़ पहुंच गए। इन लोगों का जोश और उत्साह देखने योग्य था। उधर आवभगत भी जम के हुई थी कि तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे लंबे-ऐ- लंबे। गोपी भैया के सपने इंद्रधनुषी हो रहे थे वे दुल्हन को देखने को बहुत उतावले थे लेकिन गाड़ी के डिब्बे में उनको मौका ही नहीं मिला। केवल लाल चूड़े वाले हाथ को मौका मिलने पर पास बैठे सहला कर, अधीरता जता देते थे अपनी दुल्हन को। और जवान बिट्टी भी बिन कहे, उनकी मन की आवाज को सुन पा रही थी और संवेदनाओं को महसूस कर रही थी। केवल यही छुअन उसे सांत्वना दे रही थी कि वह एक नए देश के नवीन परिवेश में बसने जा रही है इसी छुअन के भरोसे ! चाहत तो बिट्टी की भी यही थी कि वह अपने प्रियतम को आंचल बना के तन से लपेट ले। आंखिर दो जवान दिलों का यह प्रथम मिलन होना था! खैर लंबे सफर के बाद अगली रात घर पहुंच कर बड़े से घूंघट के दोहरे पल्ले से चेहरा ढकें उनका गृह -प्रवेश हुआ और कुछ रस्मो- रिवाज के बाद उनकी सुहागरात के लिए उन्हें कमरे में छोड़ दिया गया।
अरमानों भरी रात ने सिंगार किया और भावों के कंचन को कुंदन बना दिया उनके मिलन ने ! बिट्टी को लगा ,वो सदियों से प्यासी नदी थी जो आज सागर से मिलकर एक ही रात में अपनी जिंदगी जी गई थी । रात्रि के अंधकार में वह गोपी की बाहों में लिपटी आनंद की चरम सीमा की संवेदना में खो गई थी।
खिड़की की फांक से जब भानु के उदय होने के पूर्वाभास के छींटों ने उसकी उनींदी आंखों पर प्रकाश बिखेर दिया तो वह झटके से उठ कर बैठ गई और घबराकर अपनी अस्त-व्यस्त हालत को ठीक किया। जल्दी से तैयार होकर पुनः अपने उसी परिधान में अपनी ढोडी के ऊपर दुपट्टा लपेट कर पीछे की ओर लेजाकर, बाकी दुपट्टे से अच्छी तरह अपने को लपेट कर सबके बीच में चली गई। और इसी तरह दिन गुजरते चले गए।
एक दिन छोटी ननद अनु ने बाल- सुलभ उत्सुकता से पूछा,
“भाभी सारा समय यह दुपट्टे से मुंह क्यों लपेटती हो ?” इतना कहते हुए उसने आगे बढ़कर भाभी के मुंह से दुपट्टा खींच लिया । इस पर घबराकर बिट्टी ने झट से अपनी दोनों हथेलियों से होठों और ढोडी को ढांप लिया। फिर भी अनु ने उसका मुंह देख ही लिया। वह आश्चर्य में भरकर जोर से चिल्लाई,
“अरे भाभी तुम्हारे तो दाढ़ी है!”
और हैरानी से अम्मा को पुकारने लगी।
” अम्मा ,अम्मा! आओ देखो, भाभी की ढोडी पर बाल हैं।” सारे घर ने इस गूंज को समो लिया । सभी अपने कमरों से बाहर निकल आए और आकर बिट्टी के आसपास जमा हो गए । अनु को उसकी मां ने डांटते हुए कहा,
“क्यों चिल्ला- चिल्ला कर सारे घर कों सिर पर उठा रही है तूं?
कि तभी उनकी नजर सामने बैठी बिट्टी पर जाकर ठहर गई, जो दोनों हथेलियों से अपना निचला मुंह ढांप कर घुटनों के बल बैठी थी। सास ने बड़े रूआब से उसके पास जाकर उसके चेहरे से हाथ उठाने चाहे , तो उसने उन्हें और जोर से कस लिया। शुचिता, संयम और मर्यादा का उसे पूर्ण ज्ञान था— पर उसे लगा ,उसे भरी बज़्म में रुसवा किए जाने लगा है, तो वह , यह सोच कर अचानक थरथर कांपने लगी थी कि मुद्दत से जिस बात को वह राज़ रखे हुए थी- वह आज भरी महफिल में खुल रहा था। मानो सरे-आम उसका बदन उघाड़ा जा रहा हो।
इतने में जेठानी बोली,” तुम तो पंजाब की खिलती कली हो भई ! तुम काहे अपना मुंह ढके हो ? खोल कर दिखा दो ना! कोई जख्म -वख्म का निशान है क्या? तो क्या हुआ? इसमें मुंह छिपाने की क्या बात है?”
जैसे बकरे को हलाल करते वक्त बकरा कातर निगाहों से कसाई को तकता है, यही भाव बिट्टी की आंखें कह रही थीं… वह गंगा जमुना बहा रही थीं। द्रोपदी का भरी सभा में दुशासन चीर हरण कर रहा था तो भगवान श्री कृष्ण ने उसकी लाज रखी थी। यहां तो घर की स्त्रियां ही उसे निर्वस्त्र करने को आतुर थीं। यहां कृष्ण भगवान के रक्षक रुप की वह क्या आस लगाए? ‌तभी अनु और बिट्टी की जेठानी ने उसकी बगल में गुदगुदी करके उसके हाथों की पकड़ को कुछ ढीला किया, साथ ही उसके हाथ झटके से हटा दिए- — — — – –
उसकी सास चीत्कार कर उठी,” अरे यह तो दाढ़ी उगाए है! तभी मुंह पर दुपट्टा बांध के सटाईल मारती है ।अरे , हमारी तो किस्मत फूट गई ! अब दुनिया को कौन सा मुंह दिखाएंगे ?”
और लगी उसको दोहत्थड़ मारने। मार – मार के उसका बुरा हाल कर दिया । किसी ने उसको मारने से हटाया नहीं । जैसे बिट्टी ने बहुत जघन्य अपराध कर दिया हो ! बेबस बिट्टी पिटे जा रही थी वह क्या कहे? उसके साथ कुदरत ने ऐसा मजाक क्यों किया? वह तो सारे जतन करके हार गई थी। कभी वटना लगाती थी , तो कभी राख लगाकर दाढ़ी के बाल खींचती थी और बालों को खींचने का दर्द सहन करती थी। लेकिन इतने ढीठ बाल थे कि उगते ही रहते थे। तभी तो हारकर वह दुपट्टे से ढोडी बांधे रखती थी।
( किसी को ज्ञान ही नहीं था कि यह स्वभाविक वह प्राकृतिक है । बचपन से जवान होने पर, यह हार्मोनल बदलाव होता है। किसी के चेहरे दानों (फुंसियों) से भर जाते हैं, तो किसी के बाल उग आते हैं। इसमें बिट्टी का कोई कसूर नहीं था। आजकल ब्यूटी पार्लर में ” इलेक्ट्रोलिसिस ” से बाल साफ हो जाते हैं । उस जमाने में ब्यूटी पार्लर का कंसेप्ट ही नहीं था। लड़कियों के जवान होने पर , कइयों के शरीर में कुछ हारमोनल बदलाव होते हैं। फिर उस दौर में बालों से छुटकारा पाने का कोई कारगर उपाय भी तो नहीं था।)
बिट्टी के पथ में इस विपदा ने जवान होते ही दस्तक दे दी थी। लेकिन अपनों के स्नेह ,ममत्व और लाड-प्यार ने उसे कभी इस विपदा से सूखने ही नहीं दिया था। प्यार से सींचे माहौल में… लावे की तरह फूटती नफरत और इतनी हिकारत से उसकी शिराएं फटने को हो आई थीं। उसे अंदेशा ही नहीं था कि रात को घर में उस पर बम फूटने थे! क्योंकि जब घर के मर्द आए, तो उन्हें नमक- मिर्च लगाकर किस्सा जायकेदार बनाकर सुनाया गया। गोपी तो उसी पल गुस्से से आग बबूला हो गया। उसने कमरे में आकर सीधे उसका मुंह नोच डाला। उसके बाद उसके बाल खींचे । उसे होश नहीं था । वह अपना आपा खो चुका था। गुस्से में तमतमाता हुआ माचिस ले आया, और बोलता जा रहा था,
“आज तक मैंने ध्यान ही नहीं दिया ,तुझे प्यार किया। लेकिन तूने और तेरे मायके वालों ने हम सब को धोखा दिया। तुम्हारी बदसूरती छिपाई। आज मैं तेरे मुंह के बाल जला डालूंगा।” कहते हुए उसने माचिस की जलती हुई तीली उसकी ढोड़ी में लगा दी। और उसके दोनों हाथ कस के पीछे से पकड़ लिये। जलने की जलन से बिट्टी चीखे जा रही थी लेकिन उसे बचाने कोई नहीं आया । जलने के दर्द से वह बेहोश हो कर जमीन पर गिर गई तो उस को बूट की ठोकर मारकर गोपी बाहर निकल गया था।
आज नारी ही नारी की दुश्मन बनी बैठी थी। किसी ने आकर उसके जख्मों पर नरम रुई का फाहा नहीं रखा, ना ही कोई उसे देखने आया। सुबह उसे जब होश आया तो भूख -प्यास और दर्द -जलन से तड़पती वह कराहती हुई उठी और और रसोई की ओर चल दी।
वक्त की घड़ी की सुइयों को उल्टी दिशा में चला कर वहां पहुंच रही थी… जहां (मां के गर्भ) से वह सुई चलनी शुरू हुई थी। मानो शबनम के कतरे पत्तों के गोशों पर अपना ठौर ढूंढ रहे थे, जबकि उनके खाते में नियति ने धूल पर गिरकर मिटना ही लिखा होता है। वह रसोई के दरवाजे की दहलीज पर जाकर उकड़ू सी होकर बैठ गई, तो भीतर से भाभी ने एक रोटी और एक चाय का कप उसकी ओर रख दिया। बिट्टी ने बिना देर किए पेट की अग्नि को शांत किया और बाहर बरामदे में जाकर बैठ गई। वह भयभीत और तनावग्रस्त भी थी कि ना मालूम कब गोपी आ कर उसे फिर से मारने लगेगा!
उसके अवचेतन में अन्तर्द्वन्द चल रहा था जिससे वह चिंतित थी। अपनों से दूर इन अपनों में अपनत्व लेने आई थी वह , लेकिन नियति की क्रूरता यह थी कि इन अपनों में कोई अपना था ही नहीं। उसने तो अभी तक घर से बाहर झांक कर भी नहीं देखा था कि कौन सा रास्ता किस तरफ जाता है? उसके लिए तो सभी राहें गड मड हो गई थीं, जिनकी कोई मंजिल ही नहीं थी।
उधर घर में, भीतर कौरव सभाएं होनी शुरू हो गई थीं कि उनके साथ धोखा हुआ है। अब इस से कैसे छुटकारा पाया जाए? उनसे कैसे बदला लिया जाए? उन्होंने सच्चाई छुपा कर क्यों रखी हमसे ? बाला से भी पूछा था तो बिट्टी की तारीफें करती नहीं थकती थी, अब बुलाओ उसको । बाला को बुलाया गया, तो उसने सच्चाई यही बताई कि उसे भी ढोडी पर दुपट्टा बांधने की बात समझ नहीं आई थी और अब यदि राज पर से पर्दा हट ही गया है तो यह कुदरत की मार है। इसमें बिट्टी का कोई कसूर नहीं है। बिट्टी का स्वभाव तो बहुत मृदुल है लेकिन उन सब का “अहम” यह मानने को तैयार ही कहां था!!
जलन की पीड़ा से छटपटाती उसे भीतर कमरे में जाकर हाय-हाय बोल कर तड़पती देखकर देवर बीरु पसीज गया और मां से पूछकर उसको सरकारी अस्पताल में ले गया। जहां उसके ज़ख्मों में हो गई इंफेक्शन का इलाज हुआ और मुंह पर पट्टियां बांध दी गईं। आस-पड़ोस के लोग क्या कहेंगे… इस डर से मुंह पर घूंघट डाल के उसे घर के भीतर लाया गया।
चार दिनों की चांदनी जो बिट्टी के जीवन में बिजली की तरह कौंधी थी उसी के सहारे अब जीवन बिताना था उसे। गोपी ने तो उसका त्याग कर दिया था। बिट्टी को दिन-रात ‘मनहूस’ कहकर बुलाया जाने लगा और उस पर तानों की बौछार करने से उसकी सास चूकती नहीं थी। घर का सारा काम करने के बावजूद उसे दो रोटी नसीब हो जाती थीं, बस इसी से वो मायके से चिट्ठी आने पर उसमें अपने सुखी जीवन का छद्म चित्रण कर देती थी। इस डर से कि मेरे दर्द से मेरे अपने दुखी होंगे, जो लड़कियां भाग्य में दुख लिखा कर जन्मती हैं मायके में अपने लोगों को जीते जी दर्द नहीं बताती हैं। बिट्टी ने भी मुखौटा लगा लिया था और जीवन मुखौटों की आढ़ में बिता देना चाहती थी।
वक़्त आगे सरक रहा था कि उसने अपने शरीर में कुछ परिवर्तन महसूस किया और डरते- डरते यह बात अपनी सास को बताने की हिम्मत करी। जिसे सुनकर उसकी सास के सपने जाग उठे और उसके खाने-पीने का थोड़ा बहुत ध्यान रखा जाने लगा। उसके मायके भी खबर भेज दी गई, जिससे उसके भैया उसे लेने आ पहुंचे थे। बाहर के घाव तो अब नजर नहीं आ रहे थे लेकिन भीतर से उसके रिसते जख्मों ने उसे लहूलुहान किया हुआ था। वह भाई के संग जाने वाली थी कि एक दिन पूर्व ही उसे अजीब सा दौरा पड़ा। यह मिर्गी या हिस्टीरिया का दौरा था।
मानसिक आघात उसे इस मोड़ पर ले आया था। डॉक्टर को बुलाया गया तो उसने आगाह किया कि इसका उपचार किया जाए जिससे चक्कर आने और शरीर में अचानक झनझनाहट होने को रोका जा सके । उसने बताया कि किसी नाजुक एहसास के टूटने से बिट्टी के “न्यूरो ट्रांसमीटर” यानी कि मस्तिष्क की कोशिकाओं या न्यूरॉन्स को क्षति पहुंची थी! ‌‌जिससे दौरे के समय उसका दिमागी संतुलन पूरी तरह से गड़बड़ा गया था और उसका शरीर लड़खड़ाने लगा था। हाथ और पैरों पर इसका गहरा असर होता दिख रहा था। बिट्टी के साथ घटी यातनाएं इसकी उत्तरदायी थीं लेकिन भाई ने जब उसे दौरा पड़ता देखा तो वह भी भीतर तक हिल गया था।
घर पहुंचकर मां की गोद में बिट्टी ने यूं चैन पाया मानो सदियों बाद मां को मिली हो। वहां के खेतों- खलिहानों और सखि- सहेलियों के बीच उसकी हालत में सुधार होने लगा था। यह वे लोग थे जो उससे प्यार करते थे- -उसके चेहरे से नहीं! साथ ही उसका उपचार भी हो रहा था। अवसाद के बादल छंट चुके थे। उसकी खिलखिलाहट वापिस आ गई थी। उसके पिताजी ने बिट्टी के ससुर को वहीं मायके में रहकर बिट्टी की जंचकी करने की प्रार्थना की, इस पर वहां से “हामी ” भरने से इनकी बाछें खिल गईं थीं।
वक्त हवाओं की सवारी कर रहा था … वह दिन भी आया जब बिट्टी ने एक स्वस्थ, सुंदर कन्या को जन्म दिया । जो एकदम गोपी जैसी सुंदर थी। अपने सब भाई – बहनों में गोपी का रूप मुंह चढ़कर बोलता था। इधर गोपी को बाप बनने की खबर मिलने से उसके सुप्त प्रेम के झरनों में जीवंत बहाव आ गया था और वह अपनी बेटी को देखने के लिए उतावला हो रहा था। गोपी के मन की बात को उसके पिता ताड़ गए और सवा महीने के बाद उसे बिट्टी को लिवाने रतनगढ़ भेज दिया। दामाद के आने की खबर पर ही उस घर में उत्सव सी तैयारी होने लगी थी। लेकिन बिट्टी का दिल बैठा जा रहा था —उसके शांत मस्तिष्क में हलचल मच गई थी और उसका तनाव बढ़ने लग गया था। वह अपना पीहर नहीं छोड़ना चाहती थी और आने वाली परिस्थितियों की परिकल्पना को वह ख़्यालों में भी सह नहीं पा रही थी।
कहते हैं ना ‘समय’ जीवन के हर घाव भर देता है और काल का पहिया निरंतर घूमता रहता है । ना इस में ब्रेक लगती है और ना ही यह रिवर्स गियर में जाता है। सो, इतने महीनों के अकेलेपन ने गोपी को सोचने का समय दिया था । गोपी ने बहुत सोच विचार के पश्चात यह निर्णय लिया था कि इस मे बिट्टी का दोष नहीं है। उसीने सबकी बातों में आकर बिना सोचे – विचारे बिट्टी पर बहुत जुल्म किया था । जिससे उसमें पश्चाताप की भावना घर कर गई थी।
पतझड़ कितना भी विकराल क्यों ना हो — बसंत को आने से रोक नहीं सकता। सो, ससुराल पहुंचते ही उसने बिट्टी और अपनी बेटी को भरपूर प्यार दिया। यह देख कर बिट्टी के विरानों में फूल खिल उठे और एक आस का दीपक जल उठा था। जिस कारण वह पति के घर जाने को राजी हो गई थी। लेकिन बिट्टी ! अब वह बिट्टी नहीं रह गई थी । वह अंतर्मुखी हो गई थी।
चांद सी खिली पोती का मुंह देख कर उसकी सास ने झट उसे गोदी में ले लिया। बाकी सब भी उसके दीवाने हो गए थे। जिस तरह फूल से पराग छिन जाने पर वह निरर्थक हो जाता है … कुछ ऐसे ही बिट्टी को लगा । “नेहा” को सिर्फ उसकी छाती से अमृत पिलाने के लिए ही उसे दिया जाता। वह अपनी बिटिया से खेलने को, उसकी नन्ही आंखों में झांकने को तरस कर रह जाती थी।
उसके सो जाने पर उसे बिट्टी के बिस्तर पर सुला दिया जाता था। बिट्टी उसे अपनी छाती पर सुलाने की कोशिश में सारी- सारी रात जागती रहती और उसे निहार कर मन की प्यास को शांत करती रहती थी। इस तरह रतजगे करके और सारा-सारा दिन काम करने से … भीतर का आक्रोश पुनः जागृत हो अवचेतन में असंतुलन करने लग गया था। जिससे उसे फिर मिर्गी का दौरा पड़ गया। वैसे वह अपने आपको अब ठीक समझ कर इलाज में कोताही बरत रही थी, इस बात का किसी को भान नहीं था। डॉक्टर ने सख्त हिदायतें देकर पुनः उसका इलाज आरंभ करवाया लेकिन वह अवसाद में घिरती चली गई थी । जिससे गोपी भी पुनः परेशान होने लग गया था और दोस्तों के पास जाकर वहीं बैठा रहता था और घर देर से आता था।
कहते हैं व्यक्ति जिस चीज से डरता है उसके प्रति उसका नियंत्रण खो जाता है। जिससे तनाव बढ़ने से स्थिति अवचेतन में अनियंत्रित हो जाती है और उसका सारा शरीर उसके नियंत्रण से बाहर हो जाता है। बिट्टी के साथ पुनः ऐसा ही हुआ और उसे मिर्गी का दौरा पड़ गया । उसका पूरा शरीर जोर-जोर से हिल रहा था। यह काबू में नहीं आ पा रही थी । घर में सब लोग परेशान हो गए थे ।
अपने पीहर में बिट्टी आवश्यकता से अधिक संरक्षित थी और मस्त पंछी की तरह विचरती थी । वहीं ससुराल में वह पिंजरे की कैदी बन गई थी। कब तक पिंजरे की कैद सहती ? कुछ ही दिनों में पिंजरे का कैदी अपने तन को छोड़ ब्रह्म में जाकर विलीन हो गया। सदा के लिए…!

वीणा विज’उदित’

 

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