बिकाऊ कोख (लघु कथा)
मुम्बई के मलाड की ओर मालावाड में झुग्गी, झोपड़ी मे रहने वाले गरीबों की बस्तियाँ बहुत हैं | जहाँ औरत की अस्मत के सौदों के अलावा राजनीति भी बिकाऊ है…और अब तो अजीबो-ग़रीब सौदे होते हैं | जी हाँ , पेट की करतीक्षुधा बुझाने की खातिर! घर के मर्द घर से सुबह-सवेरे निकल जाते हैं काम पर | अस्पतालों और आश्रमों के बाहर सूँघने और जानकारी हासिल करने कि उनकी औरतों की कोख का सौदा कहाँ और कितने में हो सकता है| और जिस दिन कोई बेऔलाद शख़्स मिल गया ,जिसे बच्चा चाहिए; तो उसकी पौ-बारह हो गई समझो |’ ऍ बाई, पेट से है? कितनी देर से है? चौथे-पाँचवे महीने में है तो चलेगा|\’ फिर सौदा होता है|’ बोल कित्ते देगा? सोनोग्राफी नहीं करने का| लड़की जनने के ड़ेढ़ लाख ,और लड़का जना तो ढाई लाख | बोल ,पक्का करती क्या ?’ लछमी का मर्द आज सौदा लाया था| लछमी ने अपने उभरे हुए पेट पर हाथ फिराया और सामने अपने तीन-तीन बच्चे फटे कपड़ों में भूख से बिलखते देखे तो एक और उन्हीं में शामिल करने का मोह त्याग झट से’हाँ’ कह दी |’अभी च के अभी रोकड़ा ले लछमी | कोख कु ध्यान रखने,खुराक और डाक्टरी जाँच कराते रहने के ये पचास हजार एडवांस | बाकि मेम साब आती रहेगी तेरे कू देखने वास्ते’| अब लछमी स्वय्ं खाती और बच्चों को भी खाना खिलाती थी | समय पूरा होने पर जब लछमी ने एक स्वस्थ बालक को जन्म दिया तो उसने अपने दिल को पत्थर का कर लिया और एक बार भी उस बच्चे को देखा तक नहीं | मेम साब आई और बकाया पैसा उसके मर्द को दे कर बच्चा ले गयी| लछमी केवल यह देख रही थी कि उसके तीनों बच्चे साफ- धुले कपड़े पहने हुए , भर-पेट खाना खा रहे हैं| वात्सल्य और आत्म संतुष्टि से उसकी आँखें बरसने लगीं और उसकी छातियों से ममता की धाराएं बही जा रही थीं……..
वीणा विज ‘उदित’