पुनर्जीवन (second Part)

विशा फटी आँखों से रोहण को तक रही थी |किसी तरह अपने को सँभाल वह उसका हाथ झटक कर वहाँ से हट गई |आँखों में अटके सागर को उसने बेरोक बह जाने दिया |भरे-पूरे घर में तो उसे सिसकी लेने पर भी रोक थी ,अभी तक जो बात पर्दे में थी वह खुल सकती थी |वह अपने जीवन की समस्या से आप निपटना चाहती थी | अपने जीवन को अपने अनुरूप जीना चहती थी |
विशा आखीर इस नए शहर में किससे ग़म साँझा करे? वैसे वो नावल्स पढने की शौकीन थी, किन्तु अब पुस्तक उसके सामने खुली रहती, पन्ने फड़फड़ाते रहते…और उसकी नज़रें शून्य में भटकती रहतीं |अपना दर्द अकेले सहने की ताकत उसमें है ..यह तो उसे भी नहीं पता था |विशा की नींदें उड़ गईं थीं| उसे अम्मा के आँचल की तलाश होती , जिसमें छिपकर वो चैन की नींद सो सके | तभी उसके भाई की शादी का न्यौता आया व भाई आकर उसे पीहर लिवा ले गया |वहाँ सभी नाते- रिश्ते के लोग जमा थे , खूब रौनक थी |विशा के रिश्ते की एक भाभी ने विशा के चेहरे पर बेरौनकी देखकर उसे पकड़ ही लिया |दोनो जनी छत पर जाकर एक खटिया पर लेट गईं, वहीं विशा ने भाभी से अपना ग़म साँझा कर ही लिया |विशा रो रही थी, उसके ग़म में भाभी भी रो रही थी | उसने उसे सीने से लगाकर भींच लिया |लेकिन समस्या का निदान उसको भी नहीं सूझा | विशा के रिसते छालों पर भाभी के दुलार की मरहम लगी , तो उसे कुछ राहत मिली | शादी में दामाद की खानापूर्ति करने के लिए रोहण भी वहाँ दो दिनों के लिए आ पहुँचा था | बाबूजी व अम्मा की खुशियों को देखते हुए विशा चुपचाप रोहण के साथ विदा होकर चल पड़ी थी | रास्ते में वो कार में चलती कैसेट को सुनने का नाटक कर आँखें मूँदकर पड़ी रही | जो झंझावत उसके भीतर चल रहा था , उसका शोर सहने के लिए बाह्य रूप से शांति आवश्यक थी |
यह कैसा त्रिकोण बन गया था , उसे लगा कहीं उसने यह पढ़ा था , पत्नि अपने पति की प्रियतमा से मिलने जा रही है | क्योंकि रोहण ने उसे बताया कि वह कल ही उसे उससे मिलाने ले जा रहा है | इश्क तो जवानी में बहुत लोग करते हैं, क्षम्य है यह कार्य ! विशा भी इसे अपराध नहीं मानती | लेकिन , दूसरा रिश्ता बनाना, और उसे अपनाना नहीं…यह तो अपराध ही कहलाएगा न!!!विशा को लगा बात खुलते ही घर-घर में चर्चा होगी, उनकी | उसे स्वयं पर ग्लानि हो रही थी कि उसका पति इतने कमज़ोर चरित्र का है |रोहण उसकी नज़रों में गिर गया था |
खैर, दूसरा दिन भी आ गया |लम्बे इंतज़ार के बाद विशा के सम्मुख फैंसले की घड़ी थी | उसके पास चाँदी की पायल, बिछुआ और नई सिन्दूर की डिब्बी अल्मारी में थी |सुहाग के तीनों शगुन साथ में लिए वो चल पड़ी अपने प्रियतम के साथ एक अजीबो ग़रीब अभियान पर….!पूरे रास्ते दोनो चुप्पी साधे रहे | शायद दोनो के विचार अपनी-अपनी लीक पर दौड़ रहे थे |जिस ओर वे सैर को जाते थे ,
वहाँ से और आगे कुछ कच्चे घरों की कतारें दिखाई दे रही थीं |वहीं से दाहिनी ओर मुड़ने पर पेड़ों के झुरमुट थे | सूर्य की किरणें वहाँ लड़-झगड़ कर ही घुसने का दुस्साहस कर पाती होंगी | रोहण शांत व निर्विकार चेहरा लिए आगे-आगे था | लेकिन विशा के चेहरे पर एक रंग आ रहा था, तो एक रंग जा रहा था | अलीबाबा को “खुल जा सिम-सिम” कहते हुए भी वो बचैनी नहीं हुई होगी जो आज विशा के भीतर थी |यहाँ भी तो बहुत बड़े राज़ से पर्दा उठना था…..!
आख़ीर वो कौन होगी ..?विशा क्यूंकर उसका सामना कर सकेगी ?आज विशा अपने पति –अपने सुहाग को बाँटेगी |हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बँटवारे में जमीनें बँट गईं, जनता बँट गई लेकिन ….ऍसा बँटवारा!! ये तो तब भी नहीं हुआ था | विशा को लगा वो सह नहीं पाएगी |हर पल वो भीतर ही भीतर टूटती जा रही थी | कलाई घड़ी की सुई जैसे-जैसे आगे बढ रही थी , उसी रफ्तार से ढेरों बम फटने से विशा के टूट कर बिखर जाने के पल करीब आ रहे थे |उसने देखा कि रोहण के कदम एक घनी झाड़ी की ओर बढ रहे थे| शायद उसे भी इसी घड़ी का इंतज़ार था | विशा के सीने में जोरों का दर्द उठा, उसने हाथ से सीना भींच लिया |उधर साँझ का धुँधलका बढता जा रहा था | विशा के दर्द की शिद्दत भी बढती जा रही थी , उसे लगा कि उसका दम निकलने लगा है…कि देखती क्या है कि रोहण ने एक सफेद साड़ी के आँचल को झाड़ी के पीछे से खींचकर अपनी ओर किया | उस डरी सी , सिमटी सी नारी ने दोनो हाथों से अपना चेहरा ढाँपा हुआ था | शायद विशा की इल्ज़ाम देती आँखों की तपिश सहने की जुर्रत वो नहीं कर पाएगी..यह सोचकर !! उसे देखते ही विशा पहचान गई |विशा तो मानो पहाड़ से खाई में जा गिरी | वह धक्क रह गई |वो..वो रक़ीब!—कोई और नहीं, उसके घर काम करने वाली , सारा दिन उसका हाथ बँटानेवाली “सुम्मी”नौकरानी थी | पल भर को तो उसकी धमनियों में बहता रक्त मानो थम सा गया | अगले ही पल विशा ने हाथ मे पकड़े हुए तीनों सुहाग के शगुन उसकी झोली में डाल दिए | उसकी उदारता देखकर रोहण स्तब्ध रह गया | बिना कुछ कहे-सुने विशा वापिस मुड़ गई |अब और कुछ पूछने या जानने को रह भी क्या गया था ?
विशा की आँखों के सम्मुख ढेरों घटनाएं चल-चित्र की तरह आती चली जा रही थीं |जिनका अर्थ उसे अब बाख़ूबी समझ आ रहा था | सुम्मी जब फ़र्श पर पोचे लगाती थी तो रोहण उसकी बाल्टी छिपा देता था, या फिर जब वो रसोई में खाना बना रही होती थी तो रोशनदान से भीतर उसे कंकर फेंककर तंग करता था | विशा जाकर देखती थी तो शरारत से मुस्कुरा देता था |विशा उसे अपने लिए की गई छेड़खानी समझती और उसे इन बातों पर प्यार आ जाता था | उसकी नाक की सीध में यह खेल चल रहा था, और वो बुद्धू बनी छली जाती रही |
विशा ने तो रोशनी की ओर कदम बढाए थे, लेकिन उसकी राह तो अँधेरों की गर्त में जाकर कहीं खो गई थी | लुटी हुई लाश को ढोए वो कब घर पहुँच गए, उसे पता ही नहीं चला | उसे अपने आपसे भी घिन हो रही थी | अपने इतने सुन्दर शरीर का होना, उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखता था | सुम्मी व स्वयं को एक ही तराजू के दो पलड़ों पर तौलने की
कोशिश की तो, उसे नाँन स्टैंडर्ड सुम्मी अपने से भारी लगी | उसके बराबर स्वयं को रखना मितली आने जैसा था |उसके मन में रोहण के प्रति वितृष्णा बढती जा रही थी |उसने रोहण से कोई भी अपेक्षाएं रखना छोड़ दिया |स्वयं को उससे विमुख कर लिया | लेकिन मजबूरी—-परिवार के सम्मुख दोहरा जीवन जीने के लिए परिस्थितियों ने उसे विवश कर दिया था| कि तभी एक घटना घटी……
विशा के ससुर के परीचितों में से मिस्टर एंड मिसेस गुलाटी थे | उनकी आर्किटेक्ट बेटी होस्टल से घर आई थी |विशा की तारीफ़ ममी-पापा से सुनकर वो उनके साथ उसे मिलने व देखने चली आई थी | बिन पूछे ही उसने विशा के दोनो हाथों को अपने हाथों में लेकर हल्के स्नेह से दबाया और प्रशंसा व प्यार से बोली कि वह बहुत सुन्दर है |इस सौन्दर्य को बनाए रखना उसका सर्वोपरि कर्त्तव्य है | सुन्दरता ईश्वर प्रदत्त नेमत है |जीवन में चाहे जैसे भी हालात आएं, अपनी ओर पूरा ध्यान देना |अपने भीतर विश्वास जगाए रखना | जीवन को भरपूर जीना, क्योंकि जीवन जीने के लिए ही तो है |
जैसे तूफान आने से पूर्व आकाश में क्षण भर को बिजली चमक उटती है , उसका पूर्वाभास कराते हुए ; उसी प्रकार शमा गुलाटी विशा के जीवन में आशा की किरण बन कर आई| विशा के सूने जीवन में जीने की तमन्ना जगा गई |विशा ने किसी की भी परवाह न करते हुए सामान बाँधा और चल पड़ी अपने अम्मा-बाबूजी के घर पुनः जीने की तमन्ना लेकर | वो क्यूं बाँटॅ अपने पति को???उसने उसी क्षण रोहण का त्याग कर दिया | टुकड़ों में बँटकर वो नहीं जी पाएगी | वो तो अपना जीवन भरपूर जीएगी |एक ही जीवन मिला है हमें पूरा जीने के लिए…..ऍसे शब्द ही उसके ज़हन पर छाते जा रहे थे | संसार से ट्कराने की हिम्मत उसमें आ गई थी —-पुनः जीने के लिए !!!!
वीणा विज ‘उदित’

5 Responses to “पुनर्जीवन (second Part)”

  1. rajnish parihar Says:

    बहुत अच्छी रचना……

  2. Vivek kumar karn Says:

    शुरुआत अच्छी नही लगी लेकिन अन्त अच्छा था

  3. ashu Says:

    khas nahi he…..

  4. ptiwari Says:

    bahut acchi hai

  5. yogdeepa Says:

    i bet its a real story

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