दीदार-ए-यार
बहते चश्मों को तरसते मृग शावक
सागर में समाने को बेताब दरिया
जैसे पपीहे को स्वाति बूँद की प्यास
ख़ादिम को दीदार-ए-यार की आस…
कुंतल लट से लिपट खुश है दिल
बँधकर जंजीर में दीवानगी हुई ऍसी
तिशनगी बुझा रही हैं निगाहें उनकी
दीदार-ए-यार ही अब ख़ुराक बन गई…
उन्हें रब मान दिन-रात की इबादत
दिल का कलमा पढ़ते ही ज़ुबाँ हुई बंद
इश्क कब मोहताज हुआ लफ़्ज़ों का
चारों सू नज़र आती है बयानगी इसकी…!
वीणा विज ‘ उदित ‘
August 9th, 2009 at 2:33 am
बढिया भाव पूर्ण रचना
October 11th, 2009 at 11:34 pm
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।