जाऊं वारी वारी

जाऊं वारी वारी

देश के चमन की बेतरतीब, पर लुभावनी क्यारी
दामन थामे बहार का सदा खिलखिलाती क्यारी
ढेरों रंग बिरंगी फूल एक साथ यहां है उगते
यह सजावट बाग़बां की सरल बुद्धि दर्शाती !

नया जमाना आया हर रंग हर किस्म चाहे अलग क्यारी
अस्तित्व की होड़ में अब टहनियां ही भिड़ जा रहीं
रहे अखंड भारत में गुलों के साथ गुलशन
जात -पात ,धर्म की व्याधि तो ग़ार में डुबा रही !

छोटे -बड़े, तेरे -मेरे, ऊंच-नीच का भेद मिटाने को
युग -पुरुषों ने समानता की अलख़ थी जगाई
तीव्र हवा के झोंकों से बचने को बनाए थे गुलदस्ते
लेकिन,
नोच -नोच के पंखुड़ियां ,धूल में कलियां सब मिलाईं!

तमिल तेलुगु की बने ना अलग-अलग फुलवारी
मिले-जुले फूलों से सजे देश की बगिया न्यारी
झुलस गए हैं फूल, धर्म की राख से निकली ऐसी चिंगारी
हर किस्म, रंग और गंध के फूल साथ खिलें-
हो जाए यह भूल, तो ऐसी भूल पर मैं जाऊं वारी वारी!!

  1. वीणा विज’उदित’
    26/1/2021

    (महिला काव्य मंच के वेबीनार में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर प्रस्तुति)

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