चुभन(तीसरा भाग)

रजत हर वक्त शगुना से बात करने का यत्न करता, लेकिन वह कन्नी काटकर निकल जाती |आखिरकार वे दोनो जब कमरे में अकेले हुए तो रजत ने उसे अपनी ओर खींचकर पूछा,” शगु! कैसी हो ? पूछोगी नहीं कि मैं कैसा हूँ” शगुना ने झट उसकी बाहों को परे हटाते हुए कहा ,”ठीक हूँ!” चाहती तो थी कि उन बाहों के घेरे में सदा के लिए बँध जाए ,पर अचानक लगा उसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो |वह उसी क्षण छिटककर दूर हट गई | उसे रजत के तन से किसी पराई गंध का एहसास हो रहा था |जिसे सह पाना उसके लिए दुःश्वार था | माँ बुला रहीं थीं, कहकर वह वहाँ से भाग गई | डोली वाली बिदाई तो अरमानों भरी थी | लेकिन , आज की बिदाई …शगुना को टुकड़ों में बिखेर रही थी | आज मायके की दहलीज लाँघते हुए वह सोच रही थी कि कहीं यह अन्तिम बिदाई न बन जाए उसके जीवन की? वह सबसे बहुत अच्छी तरह मिल लेना चाहती थी | सबकी तस्वीर आँखों में बसा रही थी | उसकी दीन दशा देखकर माँ ने रजत से गिला कर ही दिया कि रजत बेटा क्या हुआ है? शगु यहाँ आकर रोती ही रही तुम दोनो आपस में खुश तो हो न! हमारी बेटी का ध्यान रखना, बहुत भावुक है यह | सुनते ही रजत घबरा सा गया | उसका चेहरा फक्क रह गया |
रेल के फर्स्ट-क्लास के कूपे में वे दोनों ही थे | रजत ने गाड़ी चलने पर हिम्मत जुटाकर प्यार से शगुना के हाथ में अपनी उंगलियाँ फँसा दीं | शगुना को वह स्पर्श अच्छा लगा, वह मन ही मन उसके दोहरे व्यक्तित्व का विश्लेषण करने लगी |उधर रजत की उंगलियाँ उसके बदन पर पहली बार थिरकने लगीं ,वह सिहर उठी | शगुना का तन धीरे-धीरे इस आग में पिघलने लगा |रजत ने उसे हसरत भरी नज़रों से देखा | रजत के पहले स्पर्श से ही उसका गुस्सा मोम की तरह पिघलने लगा था |ऍसा मिलन तो कभी किसी का न हुआ होगा | रात हो चली थी , गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी तो एकाध मुसाफिर उनके डिब्बे में भी चढ आया | लेकिन, शगुना की साड़ी के पल्लू के भीतर अँधेरे का फायदा उठाते हुए उंगलियों की थिरकन बदस्तूर जारी रही | इस तरह हल्के-फुल्के मन से दोनो अपनी मंज़िल पर रात को ही पहुँच गए |पहुँचते ही रजत ने अपने ब्रीफकेस से एक बंद पैकेट निकाला और उसे हाथ में ले पिछले दरवाज़े से बाहर की ओर निकलने लगा , तो शगुना ने पूछ ही लिया कि इसमें क्या है? और वह रात को कहाँ जा रहा है? तपाक वह मुस्कुराते हुए बोला, सस्ती सी धोती (साड़ी) है, देने जा रहा हूँ –सुबह आ जाऊँगा | शगुना इस अप्रत्याशित उत्तर से घबरा ही गई | वह जहाँ खड़ी थी, वहीं दीवार का सहारा लेकर धीरे-धीरे फ़र्श की ओर बैठती चली गई |मानो उसकी टाँगों ने खड़े रहने की हिम्मत गँवा दी हो , अब अपनी जगह से हिलेंगी भी नहीं |उसके अरमानों की दबी राख को हवा देके आग भड़काकर रजत दूर..जा चुका था | उस आग में जलती शगुना अर्धसुषुप्त अवस्था में वहीं बैठी रह गई थी |
वह उन दो कहानियों के विषय में सोचने लग गई | अवश्य ही वह लड़का रजत है |रजत दोहरा जीवन जी रहा है |अब इस सब में शगुना कहाँ है? वह क्या करे ???वह माँ-डैडीजी के पास तो कभी नहीं जाएगी , यह पक्का था |इसी ऊहा-पोह में फँसी थी कि कब भोर की किरणें फूटीं और कब रजत आकर उसके बिस्तर पर लेट गया वह जान नहीं पाई | हाँ ! भविष्य में वह अपने ऊपर संयम रखेगी …यह उसका दृढ निश्चय था |
पहले की तरह ही रजत भीतर से बैडरूम की कुंडी लगते ही पिछले दरवाजे से बाहर निकल जाता | कोठी एक पहाड़ीनुमा जगह पर स्थित थी | उसके जाने पर शगुना को अँधेरे कमरे में डर लगने लगता | जैसे कोई आकर अभी उसकी गर्दन दबोच लेगा | पर एक रात, रजत के पहाड़ी से उतरते ही वह भी हिम्मत करके उसके पीछे अँधेरों में उतर गई |हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था ,पर वो बढती चली गई | वह जंगल में थी ..कभी सियार की आवाजें, कभी उल्लू बोलने लगते |वहाँ भेड़ियों का भी खतरा था , लेकिन…आज उसका डर ख़तम हो चुका था |अपने जीवन का अन्त ही उसे इस समस्या का समाधान समझ आया | वह थक कर एक बड़े पत्थर पर जाकर बैठ गई | वहाँ अजब अनहोनी हुई | जिस प्रकार महात्मा बुद्ध को वट-वृक्ष के नीचे ज्ञान मिला था, उसी प्रकार शगुना को भी उस पत्थर पर ज्ञान हुआ कि वह इतनी सी बात पर अपना अमूल्य जीवन
समाप्त करने जा रही है….नहीं यह उसका लक्ष्य नहीं है |उसे इस जीवन में अभी बहुत कुछ करना है | रजत के प्रेम से बढकर भी जीवन में बहुत कुछ है, जिसे उसने तलाशना है | कुछ बनकर दिखाना है| वह नई राहें खोजेगी |एक दृढ निश्चय लिए वह झटके से उठ खडी हुई, और रात के ग़हन अँधकार में जीने की तमन्ना लिए वापिस लौट आई | आज खिड़की में लगी लोहे की छड़ों पर उसने अपना माथा नहीं पटका…और न ही अपने बाल नोचे |आज वो शांत मन से आराम की नींद सो गई |
एक दिन बाज़ार में शगुना को अपने कँलेज की एक दीदी अपने पति के संग मिल गईं |उनके पति बहुत भले इंसान लगे उनकी ही तरह | उन्होंने रजत से आग्रह किया कि किसी दिन वे उनके घर आएं दोनों | उधर, रजत अपने ग़लत काम के कारण किसी से भी मिलना पसंद नहीं करता था | वह खाली समय में हाथ की रेखाओं को पढता रहता ,उसने शगुना के हाथ की रेखाओं की छाप भी अपने पास रखी हुई थी | वह भाग्य-रेखाओं की ढेरों पुस्तकें ले आया था ..शायद उन्हीं के माध्यम से कोई निर्णय लेना चाहता था |उसकी
वही जाने |कुछ दिनों में शगुना की छोटी बहन अंशु छुट्टियों में दीदी के घर रहने आई |
घर देखकर वह उत्साह से भर उठी | कारण, शहरों में इतने बड़े बंगले व बाग-बगीचे नहीं
होते हैं, सो वो बहुत प्रसन्न हुई |शगुना की सखी ने अंशु के आने का सुनकर सबको बुलाने के लिए गाड़ी भेज दी | रजत ने न जाने का बहाना बना दिया , सो ये दोनो चली गईं उनके घर | अब रजत का साथ होना या न होना शगुना के लिए कोई मायने नहीं रखता था, बल्कि उसे ठीक ही लगा —उसका साथ न जाना |
वहाँ मौका देखकर शगुना ने दीदी व उनके पति को हमराज़ बना लिया|डूबते को तिनके का सहारा मिला |उन्होंने शगुना को होस्टल में रहकर बी.एड करने की सलाह दी | उसे फाँर्म मँगवाकर देने का वायदा भी किया | घर वापिस आकर शगुना प्रसन्न थी |उसको अपने इर्द-गिर्द फैले अँधेरों में दीए की टिमटिमाती लौ दिखाई दे रही थी | जिसकी रोशनी में उसने एक नई राह की ओर कदम बढाए थे |
अगले दिन शाम को फिल्म देखने जाने का प्रोग्राम बना | जहाँ अंशु बैठी थी , वहाँ उसने दो औरतों को फुसफुसा कर बात करते हुए सुना | एक कह रही थी कि हाय! देख न, कितनी सुन्दर लड़की है |रजत का दिमाग खराब है , जो हीरे को छोड़कर कोयले के साथ रहता है | अंशु को सुने पर विश्वास नहीं हुआ | वह वहीं उठकर उनसे उलझ पड़ी | वो बोलीं , “जाओ पूछलो रजत से, शहर में सभी जानते हैं यह बात |” अंशु का तो ‘काटो तो खून नहीं |’उसके भीतर दीदी के लिए उथल-पुथल मच गई |उधर शगुना इस सब से अंजान फिल्म देख रही थी | घर जाकर उसने दीदी के सास-ससुर से ज़िद की कि वह दीदी को साथ लेकर जाएगी | शगुना की सखी व उसके पति एक दिन आए और शगुना से फाँर्म भरवाकर भेज दिया गया | शगुना का चित्त शांत था अब | अंशु ने बहन के कपड़े निकाले व उसकी तैयारी भी की |रजत को कुछ समझ नहीं आ रहा था | उसके माता-पिता भी बच्ची की जिद समझकर चुप थे| शगुना को इन्ट्य़ुशन हो गई कि वह इस घर से सदा के लिए जा रही है, फिर कभी वापिस न आने के लिए | वह अपना भविष्य बनाने व पढने जा रही थी |उसे अब समाज का सामना भी करना पड़ेगा, जिसके लिए वह तैयार थी |
ट्रेन के सरकते ही रजत भी उनके डिब्बे में चढ गया | शायद इस आस में कि शगुना उससे कुछ कहेगी …लेकिन शगुना के पास कहने-सुनने को अब कुछ भी नहीं था |
दोनो चुप..उनकी खाली नज़रें बस एक-दूसरे को पढ रही थीं |जहाँ कोई इबारत नहीं लिखी थी , था केवल एक खालीपन !! ट्रेन के रफ्तार पकड़ते ही रजत ने नीचे छ्लाँग लगा दी | शगुना की नज़रें उसका पीछा करती रहीं , जब तक रजत की आकृति धुँधली नहीं पड़ गई | अपने प्यार, अपनी पाक मोहब्बत का यही अंजाम उसके ज़हन में ताउम्र समाया रहा |
शगुना के रिसते ज़ख्मों पर पढाई का मरहम लग रहा था, दुनियादारी के लिए |लेकिन उसके भीतर कुछ चुभता जा रहा था, गहराई तक | यह चुभन जीवन-पर्यन्त उसकी छाती में टीस देती रही |
लेखिका…वीणा विज “उदित”

5 Responses to “चुभन(तीसरा भाग)”

  1. vijay chitkaara Says:

    चुभन तो बहुत गहराई तक दिल में चुभ गई है| कहानी बहुत मन भा गई है |
    विजय चितकारा,—-चित्कारा

  2. rajeev Says:

    मे इस खनि को पद्न चत हु

  3. rajeev Says:

    me is khani ko padna chata hu

  4. rajeev Says:

    i love short storys

  5. Vijay Says:

    Dear Writer,

    I came on this website today on date: 29/06/2009.

    I able to read only 2nd & 3rd Part of this story name “Chubhan”.

    Kahani kafi dil ko chhune wali thi.

    Krupaya batayein ki kya aapane aisi aur bhi kahaniyan post ki hain? agar “Haan” to..
    Story ka naam aur Website address batayein.

    Best of luck for ur next stories whichever u r writing at present.

    If possible can u let me know:
    –> What & from where u get inspiration to write stories like this??
    —->> i’ll be waiting for ur reply.

    Regards,

    Vijay Pasi.

Leave a Reply