खामोशियाँ !

खामोशियाँ!सरे आम तेरी-मेरी खामोशियाँ
फूलों की दहक देख बढ़ती हैं बेचैनियाँ
अंग-संग की दे दो मुझे निगेहबानियाँ
मौलसिरी पे सोई चाँदनी लाई मदहोशियाँ ।
खामोशियाँ…
मौजूदगी से तेरी खिल उठीं तन्हाइयाँ
नेह झरकने से तेरे मिट गईं परेशानियाँ
जब-जब सताए हैं तन्हाई की तल्खियाँ
भीगी पलकें नम न होने दें ये सरगोशियाँ।
खामोशियाँ…
राहों की बाहों में थम जाती हैं हैरानियाँ
झरे पत्तों की जीर्णता से छाई हैं वीरानियाँ
भरी बज़्म में अनदेखा कर की हैं नादानियाँ
तभी आँखों में उमड़ते धुएँ सी थीं बेहोशियाँ।
खामोशियाँ…
पसीजी दीवारों के रिसने से हैं बदहवासियाँ
दर्द़ को लफ़्ज़ों में ढालने से हैं तसल्लियाँ
कटती नहीं हिज्र की रातों की गुमनामियाँ
ज़िंदगी की तपिश झेल, ले ले आग़ोशियाँ ।
खामोशियाँ ! तेरी-मेरी खामोशियाँ ।।

वीणा विज ‘उदित’

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