“काण विवाह”
“काण विवाह ”
(यह कहानी छत्तीसगढ़ी भाषा में ना लिखकर साधारण भाषा में लिखी गई है)
” काहे लखमा, तुमको नींद कैसे आ जाती है?, कोई चिंता है कि नहीं?”मंदिना ने अपनी घास -फूस की झोपड़ी में धरती पर बिछी बांस की चटाई पर , साथ में लेटे हुए लखमा को हिलाते हुए पूछा।
“क्यों रात हो गई है तो सोए का है कि नहीं?”वह बोला।
“अपनी कलनी (बिटिया) पांच बरस की हो गई है तो ब्याह करे का है ना!”
“हां, तो करेंगे ना! जैसा तुम्हारा हुआ रहा।अब सोए दे।”
इतना बोलकर वह तो सो गया और थोड़ी देर में खर्राटे भी भरने लगा । इधर मंदिना अपने बचपन की यादों में गुम हो गई।
छत्तीसगढ़ के “गरियाबंद जिले” के “रसिल गांव” की ओर “गूड़ा पहाड़” के आसपास के घने जंगलों में ही “भुनझिया आदिवासियों” के इसी कबीले में ही तो जन्मी थी वह। उसका बचपन भी यहीं बीता था और अपनी परंपराओं के अनुसार वह यहीं बस गई थी। वर्तमान युग की आधुनिकता से परे देश की धरोहर अनुसूचित जन जातियों और आदिवासी जातियों को इस प्रदेश के बीहड़ जंगलों ने अपने भीतर संभाल कर रखा हुआ है। देश की तकरीबन आधी जनजातियां इन्हीं घने बीहड़ वनों में बसती हैं। ढेरों जनजातियां थोड़े -थोड़े फासले पर हैं । यहां जंगल बहुतायत में हैं तो खाद्यान्न उत्पादन भी खूब हैं। उसे मालूम है कि जंगली लोग मेहनती और ताकतवर होते हैं क्योंकि ये अपने उगाए अनाज पर पलते हैं। मंदिना के घर में भी तो अपने जंगल के कंदमूल और दाल-चावल पकाते हैं। यह लोग सुन रखे हैं, लेकिन अभी तक ये लोग नकली खाद यूरिया आदि का प्रयोग नहीं करते हैं । यहां मजदूर यानी कि श्रमिक बहुत सस्ते मिलते हैं। इनकी अपनी संस्कृति और रीति रिवाज हैं जिन्हें यह बहुत ईमानदारी से मानते हैं। मंदिना का मेल भी तो लखमा से साल वन की कटाई के समय होता था। वहीं इनका प्रेम पनपा था।
मंदिना को अपनी सांवली देह की चमड़ी पर बहुत गर्व था। मंदिना और उसकी गुंइयां (सहेली)कविता हर महीने ताल के किनारे की नरम मिट्टी में गले तक डूब कर दोपहरी तक मिट्टी स्नान करती थीं। अपने को धोती से साथ वाले पेड़ से बांध लेती थीं। फिर उसी को पकड़कर मिट्टी से बाहर आकर ताल में स्नान करती थीं। इससे दोनों की चमड़ी खूब चमकती थी। पूर्णमासी वाले दिन, यह दोनों ऐसे माटी स्नान करती थीं।
नोट:-
(विश्व प्रसिद्ध ब्यूटीशियन शहनाज हुसैन ने इन्हीं आदिवासियों की त्वचा का अन्वेषण करके मड थेरेपी से अपना काम बढ़ाया है और प्रसिद्धि पाई है।)
लखमा कहा करता था,” तेरी चमड़ी पर मेरी नजर फिसल जाती है, तूं बहुत खूबसूरत है।”
यह सुनकर, मंदिना मंद मंद मुस्काती थी और गर्व से फूली नहीं समाती थी।
इन लोगों का कबीले से बाहर के जनजीवन से कोई सरोकार नहीं होता है। देसी टोटके और घरेलू इलाज से यह अपने दुख- रोग से छुटकारा पा लेते हैं! तभी इस क्षेत्र के यह लोग आत्मनिर्भर हैं। यह लोग “भुनझिया आदिवासी “कहलाते हैं!
उसे आज भी याद है कि पांच वर्ष की होने पर उसका “तीखा लोड़ी” या “काण विवाह” संपन्न हुआ था। वह परेशान थी कि सारा कबीला उसको हल्दी तेल लगाए जा रहा है और उसकी महतारी (मां) उसकी गोद में लिए बैठी रही, किसी को कुछ नहीं कहती थी। जब भी किसी की बेटी का काण विवाह होता तो वह परेशान हो जाती थी। कुछ बड़ी होने पर उसने दायी (मां) से इन रस्मों का कारण पूछा तो उसने बताया था, …
“छोटी कन्याएं जब तक उनका मासिक धर्म नहीं आता वह पवित्र और पूज्य होती हैं। तभी उनका विवाह आठ वर्ष की आयु से पूर्व कर दिया जाता है। यह बिना दूल्हे के विवाह धनुष बाण के एक बाण से होता है। यह रस्म हो जाने के बाद कन्या का जीवन स्वतंत्र हो जाता है। अपनी यौवन अवस्था में फिर वह किसी को भी अपना दूल्हा चुन सकती है। माता-पिता के कहने पर भी उनकी पसंद के दूल्हे से शादी कर सकती है या प्रेम विवाह भी कर सकती है। उसे कोई मना नहीं करता है। जरूरी है कि उसका दूल्हा बस अपनी बिरादरी का होना चाहिए। अब तुम आजाद हो।”
यह सब सुनकर मंदिना के सर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया। उसे इन रस्मों की सार्थकता समझ आ गई थी।
तभी मंदिना की आंखें चमक उठीं और उसने मां को लखमा के बारे में बताया।
कबीले की लाल दीवार की झोपड़ी में देवताओं का वास होता है। मां ने बताया,
” दुल्हा देव सबले परमुख कुल देवता से। अऊ उखर
संगे-संग सूवा देव, सूरज देव, नारायन देव
येहू देवता मन जाति म परमुख इस्थान रइथे, तमो ले गोड़ जनजाति मन के सबले बड़े अउ परसिद्ध देवी बस्तर के दंतेश्वरी दाई हे।”
देवताओं के विषय में ज्ञान पाकर, मंदिना तो मानो ज्ञान की गंगा में नहा गई। उसने लखमा को सब बताया और वहीं जाकर दोनों ने एक दूसरे को माला पहनाई और कबीले की औरतों ने खूब नृत्य किया।”सुआ गीत” गाया।
“जिया जलेती रीता जानी, जिया जलेती रीता जानी
बलम सुगाजी ,हो बलम सुगाजी , हो ओ बलम सुगाजी”
गीत याद करके उसके चेहरे पर अंधेरे में भी मुस्कुराहट छा गई और वह अपने आप में लजा गई और इन्हीं ख्यालों में बह न जाने कब उसकी आंख लग गई।
बस्तर के इलाके में शनिवार के दिन इनके गांव में “रंगीला बाजार” लगता है। सारी खरीदारी कपड़ा लत्ता, मोती और पत्थर के गहने, नून मसाला ,अनाज , बच्चों के खिलौने आदि सब यहीं से यह लोग खरीदते हैं। लखमा भी मंदिना और कलनी को लेकर हॉट करने गया और ढेर सारे झोले भरकर सामान घर में ले आया क्योंकि उसके दिमाग में कलनी के काण विवाह की
तैयारी चल रही थी।
उसके अगले दिन वह दोनों को लेकर “भरोदा” गांव के घने जंगल में एक काले पत्थर के भरकम चट्टान जैसे एक प्राकृतिक शिवलिंग के दर्शन को चल पड़ा। उस शिवलिंग की मान्यता है कि वह हर वर्ष 5-6 इंच बढ़ जाता है ऊंचाई में। इसे “भूतेश्वर नाथ” के नाम से जाना जाता है! वह बीस फुट गोलाकार है और अभी तकरीबन अठारह फीट का है। वह इसी गरियाबंद जिले में है। वहां बिटिया को माथा टिकाकर, आशीर्वाद लेकर यह लोग वापस आकर गांव में घंटी बजा कर बोल दिए कि इसी इतवार को कलनी का “काण विवाह यानि “तीखा लोड़ी ” है!
ऐसी ही रहस्यमय धरोहरें हमारे देश के बीहड़ जंगलों में पनाह पा रही हैं। “माझी जनजाति” में दो मंडप की सरगुजिया शादी होती है। इसी तरह “मुरिया जनजाति” की बस्तरिया शादी भी होती है। “बैगा जाति” की लड़की की शादी से पहले माथे पर गोदना गुदवाया जाता है। मंदिना बहुत प्रसन्न है कि वह गोण “भुनझिया आदिवासी”है, जहां बिना दूल्हे के बेटी ब्याही जाती है।
ब्याह का सुनकर कबीले के मर्द लोग खुशी- खुशी बांस काट कर ले आए और एक जगह बैठकर बांस को छीलकर तरह-तरह के फूल पत्ते बनाकर बाण का सेहरा और दुल्हन के माथे का सेहरा या मुकुट बनाने लग गए । यानी की दुल्हन का श्रृंगार बनाते हैं। चारों ओर चहल-पहल मच गई। बीच का आंगन जो धूल से भरा था उसे वहां की औरतें साफ- सुथरा कर के लीपने- पोतने लग गईं। वे शादी के सगन वाले गीत संग- संग गाए जा रही थीं।
जब रात तक सब काम हो गया तो सुबह उठते ही कलनी को छोटी सी सफेद बॉर्डर वाली धोती पहना दी गई जो रंगीला बाजार से लाई गई थी। अपने समय को याद करती, उसकी महतारी यानी मंदिना उसको गोद में उठाकर बाहर ले आई। संग में दूसरी तरफ मंदिना की बहन ने कलनी को पकड़ा।
आंगन के बीच में सफेद चाक पाउडर से” मड़ुआ” यानी मंडप पूरा गया। (ऐसे ही डिजाइन अपने घरों में दीवारों पर यहां की स्त्रियां बनाती हैं।) एक पीतल का लोटा लेकर उसके ऊपर भी गोबर से और फूल पत्तों से सजाकर मंडप के बीचों बीच रखा गया। उसी के किनारे अपनी गोद में बिटिया को लेकर महतारी और मौसी बैठ गईं। गांव में चप्पल पहनने का कोई रिवाज नहीं है सारी उम्र नंगे पांव ही सब लोग रहते हैं। सामने की ओर एक बार धरती में गाड़ दिया गया । दो औरतें एक थाल में ढेर सारा तेल हल्दी और पिसा चावल मिलाकर ले आईं। इसके बाद बारी-बारी से एक-एक औरत आती रही और कलनी के पैरों को हल्दी छुआ कर गोड़(घुटने) फिर माथे तक लगाती रहीं। सभी के मुंह में अपनी भाषा में शगुन वाले शादी के गीत चलते रहे । कलनी को उठाकर अब लाल कोठी में ले गए और वहां पर कबीले की सबसे बुड्ढी औरत के पैर छुआए। उसने कलनी के ऊपर चावल का छिड़काव किया और वह भी संग में आ गई। उसने भी आकर दुल्हन को तेल हल्दी लगाई। इसी दाई मां के कहे अनुसार अब आगे का रीति रिवाज होने लगा। तब तक बाकी महिलाएं भी आपस में हल्दी एक दूसरे को लगाकर होली जैसा माहौल बना रही हैं। खूब गाने और हंसी खेल चल रहा है। स्त्रियों के मुखारविंद से मीठे-मीठे संगीत में गीत माहौल में घुल रहे हैं। पहाड़ के ऊपर की बस्ती से ताओ जनजाति के लोग भी आए हैं शादी में सम्मिलित होने।
अब मड़ुवा गूंजाने लगे, लड़की सात फेरे लेगी वहीं जमीन पर गड़े हुए बाण के साथ। इसे “खपर “बोलते हैं! सूखा लंबा- लंबा घास भवंरा को झाड़ू की तरह एक बांस के ऊपर बांधकर उस पर आम के पत्ते लगाए गए। कहते हैं यह सूखा घास कीमती होता है। अब लड़की को नहलाने के लिए तालाब की तरफ ले गए, जो काफी दूर था। अर्थात आधी शादी हो गई। एक बार फिर फेरे होंगे। बोले अर्द्ध शादी हो गई। तालाब में पानी खेला जब हो गया तो बांस की एक गोल थाली में दीप जलाना जरूरी है, तो वह जलाया गया। हल्दी -तेल पानी में नहाने से उतर गया। अब उसकी पुरानी धोती उतार कर दूसरी पीली धोती पहनाई गई है।
इससे अगली रस्म है कि दो पुरुष एक चादर तान कर रखते हैं दोनों किनारों से पकड़ कर। उसकी एक और दुल्हन व दोनों स्त्रियां उसकी मां और मौसी और दूसरी ओर कबीले की स्त्रियां होती हैं। चादर लेकर मड़ुवा(मंडप) भुंझाते हैं। जो कि सफाई करके दोबारा मंडप पोता गया है।अब दुल्हन के माथे पर डोरी बांधकर उसके आगे बांस के फूलों का सेहरा यानी मुकुट सजाया गया है। इसी तरह का एक और सेहरा पास में जमीन में गड़े हुए बाण(काण) को भी बांधा गया है। दुल्हन के एक और साथ फेरे जिसे खपर बोलते हैं। वह भी हुए। यह सारा कार्य इस बुड्ढी दाई मां के कथनानुसार हो रहा है। यह लोग अब फिर तालाब की ओर जा रहे हैं गोद में दुल्हन को उठा लिया गया है और उसके पीछे बाकी लोग भी तालाब में जाकर दुल्हन के मुकुट वगैरा बहा दिए हैं। माथे की डोरी उतार कर वहीं जमीन में गाड़ दिए हैं। इस का तात्पर्य है कि अब विवाह संपन्न हो गया है बिना दूल्हे के। बाण का मुकुट भी बहा देते हैं और उसे वापस घर ले आते हैं। लखमा के हाथ में बाण है। वह बहुत प्रसन्न है कि उसकी बेटी का “काण विवाह” हो गया है।
मर्द के सिर पर यह बहुत बड़ी जिम्मेवारी होती है क्योंकि अगर देर हो जाए और लड़की को मासिक धर्म आ जाए तो उसकी शादी फिर कभी नहीं हो सकती है।
हालांकि उनके कबीले में ऐसा कभी नहीं हुआ था।
घर आंगन में वापस आकर सारी बिरादरी को सरई के पत्तों से बने पत्तल पर गरम-गरम भात और दाल परोसी गई। पत्तल के ऊपर ही हाथ से पानी डालकर, उसे धोकर फिर उस पर भात परोसते हैं।
जब सारा ब्याह संपन्न हो गया तो मंदिना अपनी लाडो बिटिया कलनी के बलंया उतार कर उसको छाती से चिपका ली और बोली,
“तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ फिर मैं तुमको सारी बातें समझा दूंगी! इस अचरज भरे रस्मो रिवाज का बहुत मर्म है जिंदगी में खुश रहने का। उसी के कारण तो मैंने लखमा को पाया था।”
डा.वीणा विज’उदित’