कनारा कर गया

हाले दिल बयां करूं भी तो किससे
माज़ी अपना ही कनारा कर गया…..
रस्मे वफ़ा निभाते रहे उफ़ न किए
बेरुख़ी से दामन चाक-चाक कर गया…..
जमीं से फ़लक तक सज़दा किए
नाकामियों का मंज़र अता कर गया…..
अश्कों का समंदर लहू संग बहे
हर हाल में जीने का इशारा कर गया….
इश्क में डूबते तो बेख़ुदी समझते
भरी बज़्म में रुसवा यारा कर गया….
लम्हा-लम्हा मरे रहमते जिंदगी जिए
वीरानों को अश्कों से बहारा कर गया….
हबीब को हासिद समझने की भूल किए
शबे-विसाल को शबे-हिजरां कर गया …………
वीणा विज ‘उदित’

माज़ी= रखवाला ,फ़लक=आसमान ,बज़्म= महफिल ,हासिद= दूसरों से जलने वाला ,शबे विसाल= मिलन की रात ,शबे हिजरां= जुदाई की रात |

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