उनींदे ख्वाब

बंद मुट्ठी में मुँह छिपाए
पल बेहिसाब
गुमनाम से सम्बंध
सुप्त हादसे
और बेचारगी में
रोते लम्हे
निस्तेज़ आँखों में
तलाशते उनींदे ख्वाब !
*
ज़िंदा हूँ जी रहा हूँ
कब हुआ मालूम
साँस लेता जीव हूँ
इस शोर में
नश्तर चुभोती स्मृतियों
की पैनी धार
कुंठित करें नींदें
तडपाए दिले बेताब |
*
रेत के तूफानों सी
शक्ति नहीं इनमें
कि मुट्ठी से फिसले
और मुक जाएं
अपनी गिरिफ्त में ले
हर पल हर घडी
टोहते, निचोडते मेरी
सासों की आब |
*
छिपा दिल में क्लांत
निर्जीव अनुभाव
सोया नहीं बरसों से
जिसका आसमां
डाल सकता है चाँदनी
के नूर का घूँघट
रुख की रोशनी पर पुनः
लाने को आफताब ||

वीणा विज ‘उदित’

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