इसलिए आओ हृदय में ।
लोभ, मोह, माया से लालित क्षुद्र सीमाएं
वक्र रेखा में होती उद्भासित निरन्तर
शिथिल हो रही अंगयष्टि है बेचैन
हे वरद हस्त कौशल -शिल्पी! शरण धरो ।
हृदय के अतल गह्वर का आत्मज्ञान
विलीन हो अवरोधित हुआ निराधार
कौसुम्भी धाराएं जो करतीं चलायमान ,
अवरोध हटा उनका मार्ग सरल करो ।
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अनुतापवश कांपते अधरों का प्रस्फुटन
महाशून्य में करता क्षणिक कम्पन ज्यूँ
दशरथ अनुताप में छटपटाते पर्यन्त जीवन
इसलिए आओ हृदय में , पुन: प्राण भरो ।
पीर हर ,अणु युग में ह्रदय भीतर “स्टेंट “धरो ,
शल्य -चिकित्सा से ह्रदय का ग्रहण दूर करो ।।
वीणा विज उदित
मेरीलैंड