अनपढ़ी किताब
अनपढ़ी किताब
काश! तुमने मुझे ढंग से पढ़ा होता
एक अनपढ़ी किताब की तरह
उत्सुकता से हाथों में लिया होता
बाह्य आवरण की रंगीनियों की अपेक्षा
भीतर खिंचे सादे चित्रों में छिपे भाव
समझने का इक यत्न किया होता !
उंगलियों की पोरों को होठों से भिगो
इक-इक पन्ने का जिस्म टटोलने को
पाने की चाह में उत्सुकता से छुआ होता!
नीरस गूढ़-ग्यान से भरी न सही
सरसता से भरे तिलस्मी गद्यांश
खोजकर दिल में स्थान दिया होता !
पेजमार्क लगा शैल्फ पर रख
पुन:वहीं से पठन की ललक लिए
क़रीब से मेरी तन्हाइयों को छुआ होता!
हृदय के नीरव कोने में
बार-बार पढ़ने
तल्लीनता से पढ़ते रहने की
प्रबल इच्छा बनी रहने से
यह किताब आख़ीर पढ़ी जाती !
तब आज की भाँति
तुम्हें मुझसे गिला-शिक़वा न होता !!
वीणा विज ‘उदित’